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________________ SSSC* जैन गौरव-स्मृतियां *SS की विवक्षा है परन्तु इन दो विरोधी धर्मों को एक साथ प्रकट करने वाला कोई शब्द नहीं है इसलिए इसे 'अवक्तव्य' शब्द से प्रकट करते हैं। यह चतुर्थ भंग हुआ। (५) स्याद् अस्ति अवक्तव्यं च-जब वस्तु में स्व-द्रव्यादि की अपेक्षा से असत्त्व और युगपत् सत्त्व-असत्त्व को प्रकट करने की इच्छा हो तब यह भंग बनता है। (६) स्याद नास्ति अवलव्यं च-जव वस्तु में पर द्रव्यादि की अपेक्षा से असत्त्व और युगपत् सत्त्व-असत्त्व. को प्रकट करने की इच्छा हो तब यह भंग बनता है। . . . . . . . . . . . . . . : ... : - (७) स्याद् अस्ति-नास्ति अवक्तव्यं च-जब वस्तु में रहे हुए स्वद्रव्यादिक की अपेक्षा से सत्त्व औरपर द्रव्यादिक की अपेक्षाः से असत्त्व धर्म को क्रमशः तथा उक्त दोनों धर्मों को युगपत् भी कहने की विवक्षा हो तब 'अस्ति-नास्ति-अवक्तव्यंच' यह भंग बनता है । . इन सातभंगों में मूलतः विधि-निषेध रूप दो भंग हैं। इन दो भंगों के । मेल से तीसरा भंग बनता है । पहले और दूसरे भंग को युगपत् कहने की विवक्षा में चतुर्थ भंग बनता है। प्रथम और चतुर्थ के संयोग से पञ्चमः द्वितीय और चतुर्थ के संयोग से षष्ठं और तृतीय-चतुर्थ के संयोग से सप्तमभंग बनता है । वस्तु के एक धर्म को लेकर एक सप्तभंगी बनती है । वस्तु में अनन्त धर्म हैं अतः अनन्त सप्तभंगियाँ बन सकती हैं। परन्तु एक धर्म को लेकर तो सप्तरंगी ही बन सकते हैं । सप्तभंगी और स्याद्वाद के द्वारा ही वस्तु का सच्चा स्वरूप प्रतीत हो सकता है । इस विवेचन का सारांश यह है कि जैन दर्शन को वस्तु का एकान्त रूप अभिमत नहीं है वरन् उसकी दृष्टि में वस्तु का स्वरूप अनेकान्तमय है । अतः कहा गया है कि "अनेकान्तात्मक वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम्" .. . .. .. . ... ... .. . अनेकान्तवाद के सुसंगत सिद्धान्त के रहस्य को भलीभांति न समझने के कारण जैनदर्शन के प्रतिद्वन्द्वी वेदान्त के आचार्य शंकर ने तथा अन्य विद्वानों ने इस सिद्धान्त पर अनुचित आक्षेप किये है और आक्षप-परिहार इसे अनिश्चितवाद, संशयवाद और उन्मत्तप्रलाप तक कह डाला है । शंकराचार्य ने स्याद्वाद के जिस स्वरूप का
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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