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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियों ★ सूक्ष्मः तर्क उपस्थित किये हैं । जैसे "प्रतिक्षणमुत्पाद व्यय ध्रौव्यैकरुएः परिणामः..........सहकारिकारण सद्भावे दृष्टः। यस्तु सहकारि कारणं स कालः । . . . . . .:: .. काल द्रव्य के विना जगत् का विकास रुक जाएगा । वस्तुओं की उत्पत्ति तथा विनाश समय के अभाव में आश्चर्यजनक लेम्प के अभाव . में अलादीन के शानदार महल के समान होने लगेगा । यहाँ राह भी. ध्यान में रखना चाहिए कि न्याय वैशेषिक दर्शनों के अतिरिक्त किसी भी भारतीय दर्शन में काल का उतना विशेष वर्णन नहीं किया गया है जितना जैनमत में, परन्तु ये दर्शन - केवल जैनमत के व्यवहार काल तक ही रह गये हैं, आगे नहीं बढ़ सके हैं। आधुनिक विज्ञान 'समय' के कार्यकलाप के आधार पर उसे द्रव्य रूप से मानने का अनुभव करने लगा है पर उसने अभी तक सिद्धान्त.. रूप में उसे स्वीकार नहीं किया है । एडिंग्टन का यह कथनः-Time is more . physical reality then milter तथा हैनशा का यह वाक्य These four e ements ( Space,matter. time and medium of moon ) are all. separate in our minds Eve. cannot imagine that . one of the could depend of another or be converter. into another. उपर्युक्त निर्देश में प्रमाण हैं। भारतीय प्रो० एन० आर० सेन भी. इसी मत. में हैं। काल द्रव्य... के अस्तित्व के विषय में जैनमत से ठीक मिलता हुआ तर्क फ्रेन्च दार्शनिक . वर्गसन ने भी रखा है। उसके अनुसार भी "जगत् के विकास में काल एक खास कारण है। बिना काल. के परिणमन औरः परिवर्तन कुछ भी नहीं हो सकते फलतः कालद्रव्य है.। .. . ... ... ..... ...... कालद्रव्य के दो भेदों को वैज्ञानिक स्वीकार करने ही लगे हैं: Whatever may be the time defuse ( व्यवहार ) the Astronomer royals time is befecto" (निश्चय.) Edding ton. . एक प्रदेशी होने से ही. कालद्रव्य में ध्रौव्यत्व है इसे भी वर्गसन : स्वीकार करता है।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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