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________________ SoS य जैन-गौरव-स्मृतियां नहीं च दृश्यमान नहीं हम तथा अधर्म के और न स्थिर हो त्यति समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। ये गति-स्थिति में वाह्य या उदासीन कारगा हैं मुख्य नहीं। . जगत् में यदि जीव, पदार्थ, एवं आकाश ये तीन ही मूल सत्तायें होती तो दुनिया का अस्तित्व ही न हो पाता, क्योंकि जीव, पुद्गल अनन्त आकाश में फैल जाते और उनका भान होना कठिन हो जाता । इसलिये जगत् की स्थिती सुदृढ़ बनाये रखने के लिये ये दोनों माध्यम आवश्यक हैं। मात्र धर्मद्रव्य होता तो भी जगत् का वर्तमान रूप असम्भव था और मात्र अधर्म ही होता तो परिवर्तन का लोप होने से लकवा जैसी परिस्थिति होती। मनुष्य न तो केवल वेगवान ही हो सकता है और न स्थिर ही। दोनों में रहना ही उसका स्वभाव है। धर्म तथा अधर्म के कार्य यद्यपि विरोधी हैं परन्तु उनका विरोध दृश्यमान नहीं है क्योंकि वे उदासीन हेतु हैं । स्वयं किसी को ये प्रेरित नहीं करते परन्तु जो गति-स्थिति करते हैं उनके लिये वे आवश्यक रूप से सहायक हैं। कालेजों में जब प्रकाश (Light ) का अध्यापन शुरू होता है तो बताया जाता है कि प्रकाश-किरणें शून्य में नहीं अपितु Ether of space के माध्यम से हमारे पास पहुँचती हैं । उस Ether ( ईथर ) के विषय में यह भी बताया जाता है कि यह कोई पदार्थ या दृश्य वस्तु नहीं है, सर्वत्र व्याप्त है तथा गमन में सहायक है । संक्षेप में वह 'गतिमाध्यम' है । आधुनिक ईथर के प्रायः सब गुण “धर्मद्रव्य" में हैं । कुछ समय पहले इसके विषय में विशेष पता नहीं था पर माइलर तथा निकेलसन-मोर्ले के प्रयोगों से अब स्पष्ट सिद्ध किया जा चुका है कि ईथर अमूर्त है और वस्तुओं से भिन्न है। पुराने समय के ये वाक्य "Ether must be something very diffrent form terrestrial substances" अब इस निश्चित धारा पर पहुंच चुके हैं। - Now-a-days it is agreed that ether is not a kind of mattr ( रुपी पुद्गल ). Being ron materinl its properties are quite unique. . . . . . . . . . . . . : (Characters of matter such as wass, rigidity etc. never + occurs in Ether] ...
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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