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________________ * जन-गौरव-स्मृतियां S e e नहीं है। दूसरे द्रव्यों की तरह यह स्कन्ध रूप नहीं होता अतः इसे "आस्तिकाय" नहीं कहा गया है। काल के सम्बन्ध में जैनाचार्यों में दो पक्ष चले आरहे हैं। एक पद काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानता जब कि दूसरा पक्ष इसे स्वतन्त्र द्रव्य कहत है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानने वाले पक्ष का मन्तव्य यह है कि “जी और अजीव द्रव्य का प्रर्याय प्रवाह ही काल है । जीवाजीव द्रव्य का पर्यार परिणमन ही उपचार से काल माना जाता है। समय, आवलिका, मुहूर्त दिन-रात आदि व्यवहार, या नवीनता प्राचीनता का या ज्येष्ठता-कनिष्ठत का व्यवहार जो काल साध्य बतलाया जाता है वह सब पर्यायां का संकेत मात्र है । वस्तु की अंतिम अति सूक्ष्म और अविभाज्य पर्याय को 'समय कहते हैं । ऐसे असंख्यात पर्यायों के पुज को 'श्रावलिका' कहते हैं । दोपर्याय में जो पहले हुआ हो वह 'पुराण' और पीछे हुआ वह 'नवीन' कहलाता है जो पहले पैदा हुआ हो वह 'ज्येष्ठ' और जो बाद में पैदा हुआ हो वह 'कनिष्ठ कहलाता है । इस विचार से यह मालूम होता है कि उक्त सब कालसार कही जाने वाली अवस्थाएँ जीव या अजीव द्रव्य की पर्याय ही हैं। जीव या अजीव द्रव्य अपने स्वभाव से ही अपनी २ पर्याय के रूप में परिणत होत रहता है । इस परिणमन के कारण रूप में किसी तत्त्वान्तर की प्रेरणा मानने की कोई आवश्यकता नहीं है अतः काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है किन्तु औपचारिक तत्व है। दूसरे पक्ष का मन्तव्य है कि जिस प्रकार जीव-पुद्गल में गति-स्थिति करने का स्वभाव होने पर भी उस कार्य के लिए निमित्त कारण रूप से धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय तत्व माने जाते हैं इसी प्रकार जीव-अजीव द्रव्य में पर्याय-परिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके निमित्त कारण रूप से काल द्रव्य मानना चाहिए। यदि निमित्त कारण रूप से काल न माना जाय तो धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय मानने में कोई युक्ति नहीं । अतः काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानना चाहिये। . श्वेताम्बर परम्परा में उक्त दोनों प्रकार के मतों का उल्लेख है जबकि दिगम्बर परम्परा में केवल दूसरे पक्ष का ही उल्लेख मिलता है। दिगम्बर परम्परा में काल को अणुरूप माना गया है। उनका मन्तव्य इस प्रकार है:
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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