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________________ - * जैन-गौरव-स्मृतियां है का ही अभाव-प्रसंग उपस्थित हो जाय । इस न्यूनतम आत्म-गुण की अपेक्षा से ही इस भूमिका को भी गुणस्थान में परिगणित किया गया है। _ यह आत्मा की निम्नतम श्रेणी है। . आत्मा स्वभावतः शुद्धि की ओर अग्रसर होने वाली है अतः जानते या अजानते मोह का प्राबल्य कुछ कम होता है तब वह विकास की ओर . अग्रसर होता है । जिस प्रकार पार्वात्य नदी का पत्थर आघात-प्रत्याघातों को सहन करता हुआ गोल मोल हो जाता है इसी प्रकार विविध दुःखों का संवेदन करते २ आत्मा में कुछ शुद्धि आ जाती है। उसका वीर्योल्लास. कुछ बढ़ जाता है जिसके कारण वह राग-द्वष की दुर्भेद्य ग्रन्थि को तोड़ने की बहुत-कुछ योग्यता प्राप्त कर लेता है। इसे शास्त्रीय भाषा में 'यथाप्रवृत्ति करण' कहा जाता है। __ ग्रन्थि भेद का कार्य बड़ा ही विषम है। जिस आत्मा ने एक बार अपने पुरुषार्थ का विकास कर इस राग-द्वेष की ग्रन्थि का भेदन कर दिया उसका बेड़ा पार हो गया । ग्रन्थि का भेदन हो जाने के बाद दर्शनमोह को शिथिल करने में देर नहीं लगती । दर्शनमोह के शिथिल होते ही चारित्रमोह की शिथिलता का रास्ता साफ हो जाता है । ग्रन्थि भेद के समय आत्मा की शक्ति और मोह की शक्ति के बीच संग्राम होता है कभी आत्मा मोह की शक्ति पर विजय पाता है तो कभी मोह-आत्मा को धर-दबा लेता हैं। इस तरह कोई २ आत्मा तो मोह से हार खाकर पीछे हट जाते है, कोई २ न पीछे हटते हैं और न विजय ही पाते हैं और कोई मोह को हरा कर इस दुर्भेद्य ग्रन्थि का छेदन कर ही डालते हैं । इस ग्रन्थिभेद कारक आत्म-शुद्धि को "अपूर्व-करण" कहते हैं। ऐसी विशुद्ध परिणाम वाली अवस्था उस जीव ने पहले कभी नहीं प्राप्त की इसलिए वह 'अपूर्वकरण' के नाम से कही जाती हैं। इसके बाद आत्मा की शक्ति और बढ़ जाती है जिससे वह दर्शनमोहनीय पर सर्वथा विजय प्राप्त कर लेता है। ऐसे आत्म-परिणाम को "अनिवृत्तिकरण' कहते हैं। इसका आशय यह है कि ऐसा आत्मा सम्यक्त्व प्राप्तकिये बिना-दर्शनमोह पर विजय प्राप्त किये बिना नहीं रहता । दर्शन मोह को पराजित करते ही प्रथमगुणस्थान छूट जाता है और आत्मा चतुर्थ . गुणस्थान पर पहुँच जाता है। XXJAYSHYAMESEDIASAX:(२२७)XXYXIXIXITMYAXYEE
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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