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________________ >> जैन - गौरव - स्मृतियां चूं कि जैनधर्म महान विजेताओं का धर्म है अतएव वह आत्मा की स्वतन्त्रता का उपाशक है । वह मानता है कि आत्मा में अनन्त शक्ति है । प्रत्येक श्रात्मा अपने वार्थ के द्वारा ही परमात्मा वन सकता है । उसे किसी दूसरे पर अवलम्बित रहने की आवश्यकता नहीं है । जैनधर्म का यह स्वावलम्बन सय सिद्धान्त मानव को मानव की दासता से मुक्त करता है और उसे अपने परस और चरम साध्य को प्राप्त करने के लिये अदम्य प्रेरणा प्रदान करता है। जैनधर्म, अपनी इस विशेषता के कारण ही श्रमणधर्म कहलाता है | श्रमण का अर्थ श्रम करने वाला होता है। किसी दैनिक या अदृष्ट शक्ति पर चावलम्वित न रह कर व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है, यह सिद्धान्त श्रमण संस्कृति की अनुपम देन है । भारतीय संस्कृति के विकास के इतिहास में जैनधर्म और संस्कृति का साधारण योग रहा है। भारतीय संस्कृति में वैदिक, जैन और बौद्ध संस्कृति का विचित्र सामंजस्य है । अतएव जैन संस्कृति की उपेक्षा करने से भारतीय संस्कृति का वास्तविक चित्र ही अंकित नहीं किया जा सकता है 12 सर मुखम चेट्टी ने एक भाषण में कहा है कि "जैनधर्म की महत्ता विपय में कुछ कहना मेरे सामर्थ्य के बाहर की बात है । मैं अपने अध्ययन के आधार पर यह अधिकार पूर्वक कह सकता हूं कि भारतीय संस्कृति के विकास में जैनों ने साधारण योग दिया है । मेरा निजि विश्वास है कि यदि भारत में जैनधर्म का प्रभाव दृढ़ रहता तो हम सम्भवतः आज की अपेक्षा अधिक संगठित और महत्तर भारतवर्ष का दर्शन करते । जैनों की उपेक्षा करने से भारतीय इतिहास, सभ्यता और संस्कृति का सच्चा चित्र हमारी आँखों के सामने नहीं आ सकता । भारतीय संस्कृति की दो धारायें प्राचीन काल से भारतवर्ष में दो प्रकार की विचारधारायें चली आ रही हैं। इन विचार धाराओं को 'समण' और 'ब्राह्मण' शब्दों से प्रकट किया जाता है | 'सम' प्राकृत का शब्द है इसके संकृति, रूप “श्रमण, 'समन' और "शसन" होते हैं । 'श्रमण' शब्द इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही श्रम से कर सकता है । विकास- पतन, सुख-दुःख, हानि लाभ और उत्कर्ष - अपकर्ष के लिये व्यक्ति स्वयं उत्तरदायी | कोई दूसरा व्यक्ति उसका उद्धार या अपकार नहीं कर सकता। इस तरह आत्मा की शक्ति पर ही अवलम्बित रह कर पुरुषार्थ की प्रेरणा देने XXXSX (५३)XXXX ܀
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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