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________________ ★ जैन- गौरव स्मृतियां ★>*<>*<>*< 1 कारण वह रागद्वेष रूप परिणति करता है । यह रागद्वेष की परिणति ही भाव कर्म है । यह आत्मगत संस्कार विशेष है । भाव कर्म के कारण आत्मा अपने आस पास चारों तरंक रहे हुए भौतिक परमाणुओं को आकृष्ट करता है और उन्हें एक विशेष स्वरूप अर्पित करता है । यह विशिष्ट अवस्था को प्राप्त भौतिक परमाणु- पुञ्ज ही द्रव्य कर्म या कार्मण शरीर कहा जाता है । यह कार्मण शरीर संसारवर्ती आत्मा के साथ सदा बना रहता है । आत्मा जब एक जन्म से दूसरे जन्म में जाती है तब भी यह सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ रहता है और यही स्थूल शरीर की भूमिका बनता है । परलोक या पुनर्जन्म का आधार रूप यही कार्मण- शरीर या कर्मतत्व है । जैनदर्शन तात्त्विक दृष्टि से सब जीवात्माओं को समान मानता है फिर भी संसारवर्त्ती जीवात्माओं में जो भिन्नता और विविधता दृष्टिगोचर होती है उसका कारण यह कर्म ही है । कर्मों की भिन्नता के कारण जीवात्माओं में नानात्व पाया जाता है । तात्विक दृष्टि से सूक्ष्म निगोद के जीवों में भी वही अनन्तज्ञान-दर्शन मय आत्मा शक्तिरूप से विद्यमान है परन्तु उनकी शक्ति कर्मों के गाढ़ आवरण से अवरूद्ध है । यह आवरण जैसे २ हटता जाता है वैसे २ आत्मा का मूल स्वरूप प्रकट होता रहता है। कर्म कृत आवरण के वैविध्य से जीवों की अवस्था में भी वैविध्य पाया जाता है । इसलिए कोई आत्मा पृथ्वी काय में, कोई अप्काय में कोई अग्नि, वायु और वनस्पति काय में, कोई त्रस रूपमें कोई पशुपक्षी की योनि में कोई मनुष्य की योनि में, कोई नरक और स्वर्गं योनि में नानाविध दुख-सुख का अनुभव करती है। आत्मा जैसे २ कर्म करती है उसीके अनुसार उसे भिन्न २ योनियों में भिन्न २ प्रकार के अच्छे या बुरे अनुभवों का वेदन करना पड़ता है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि आत्मा एक योनि से दूसरी योनि में ती हुई हष्टिगोचर नहीं होती है अतः यह कैसे माना जाय कि श्रात्मा परलोक में जाती है और उसका पुनर्जन्म होता है ? "जैसे दीवार पर अंकित चित्र दीवार के विना टिक नहीं सकता, पुनर्जन्म न वह दूसरी दीवार पर जाता है और न वह दूसरी दीवार से आया है, वह दीवार पर ही उत्पन्न हुआ है और दीवार ही में लीन हो जाता है इसी तरह आत्मा भी शरीर में उत्पन्न होता है और Zieexx XXX+X+X(£!£)»X+X+X+X+X+XXXIX.
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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