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________________ Sheese जैन-गौरव-स्मृतियां पञ्च भूतों की सत्ता रहती है तो उसमें भी चैतन्य की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। यदि यह कहा जाय कि मृत शरीर में वायु और तेज नहीं होते अतः चैतन्य का अभाव है, यही. मरण है, तो यह अयुक्त है क्योंकि मृतशरीर में सूजन (शोथ): देखी जाती है. जो वायु का सद्भाव सिद्ध करती है । इसी तरह उसमें मवाद का उत्पन्न होना देखा जाता है. जो अग्नि का कार्य है । पंच भूतों के रहते हुए भी मृत-शरीर में चैतन्य नही पाया जाता, यही, सिद्ध करता है कि चैतन्य भूतों का गुण नहीं है। प्राणिमात्र को "मैं हूँ" ऐसा स्वसंवेदन होता है। किसी भी व्यक्ति को अपने अस्तित्व में शंका नहीं होती “मैं सुखी हूँ" "मैं दुखी हूँ" इत्यादि में जो "मैं" है वही आत्मा की प्रत्यक्षता का प्रमाण है। कहा जा सकता . कि यह 'अहंप्रत्यय तो शरीर का निर्देश करता है, अर्थात् सुख-दुख का अनुभव करने वाला तो शरीर है। यह कल्पना मिथ्या है। यदि उक्त ज्ञानों में 'अहं' से शरीर का निर्देश होता तो "मेरा शरीर" ऐसी प्रतीति नहीं होनी चाहिए। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं अनुभव करता कि "मैं शरीर हूं"। सब को "मेरा शरीर" यह प्रतीति होती है। इससे मालूम होता है कि शरीर का अधिष्ठाता कोई और है। जैसे "मेरा धन" कहने से धन और धन वाला. अलग २ मालूम होते हैं इसी तरह "मेरा शरीर" करने से शरीर और उसका स्वामी अलग २ प्रतीत होते हैं। जो शरीर का स्वामी है वही आत्मा है और वही अहं प्रत्यय से निर्दिष्ट है। . अनुमान प्रमाण से भी आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है। श्रात्मा का अस्तित्व है क्योंकि इसका असाधारण गुण चैतन्य देखा जाता है उसका अस्तित्व अवश्य होता है जैसे चक्षुरिन्द्रिय । आँख सूक्ष्म होने से साक्षात् नहीं दिखाई देती है लेकिन अन्य इन्द्रियों से न होने वाले रूप विज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति से उसका अनुमान होता है। इसी तरह आत्मा का भी भूतों में न पाये जाने वाले चैतन्य गुण को देखकर अनुमान किया जाता है। आत्मा है क्योंकि समस्त इन्द्रियों के द्वारा जाने हुए अर्थों का संक- . - लनात्मक (जोइरूप) ज्ञान देखा जाता है। जैसे पाँच खिड़कियों के द्वारा
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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