SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जैन-गौरव-स्मृतियां S e e सिद्धि होती है वेद में कहा है-"विश्वतश्चनुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो, वाहुरुत विश्वतःपात् स वेत्ति विश्वं न हि तस्यवेत्ता तमाहुरग्रयम पुरुषं महान्तम् ।" सर्वज्ञ के ज्ञान में सब पदार्थ क्रमशः नही बल्कि युगपत् प्रतिविम्बित होते हैं। एक ही क्षण में परस्पर विरोधी पदार्थ इनके ज्ञान में प्रतिबिम्बित . . हो सकते हैं । जैसे दर्पण में आग और जल युगपत् प्रतिबिम्बित हो इसमें .' कोई विरोध नहीं है इसी तरह सर्वज्ञ के ज्ञान में सारे जगत् के पदार्थ प्रतिबिम्बित होते रहते हैं । इस तरह सर्वज्ञ की सत्ता प्रमाणों से सिद्ध होती है। जैनदर्शन में, जो सर्वज्ञ हो जाता है वह ईश्वर हो जाता है। सर्वज्ञता वही प्राप्त कर सकता है. जो रागद्वेष से अतीत हो चुका हो-जो सम्पूर्ण वीतराग हो चुका है । ऐसे वितराग या तो अर्हन हो सकते हैं या सिद्ध । आचार्य हेमचन्द्रजी ने कहा है सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्य पूजितः . : .. यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ।। अर्थात्-शर्वज्ञ, राग-द्वेष को जितनेवाले, तीन लोक में पूजित और यथार्थ वक्ता अर्हन् देव परमेश्वर हैं। ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म आत्मा के स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं इसलिए ये घाति कर्म कहलाते हैं । और वेदनीय, आयुष्य, नाम तथा गौत्र कर्म अघाति कर्म कहलाते हैं। जब आत्मा वीतराग हो जाता है तब उसके घातिकर्म नष्ट हो जाते हैं जिसके कारण उसमें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व और अनन्तवलवीर्य प्रकट हो जाता है। घातिकर्म के नय से आत्मा जीवन्मुक्त हो जाता है । अर्हन ऐसे ही जीवन्मुक्त होते हैं। जीवन्मुक्त सर्वज्ञ भी दो प्रकार के हैंसामान्य केवली और तीर्थकर । सामान्य केवली केवल अपनी ही मुक्ति साधना करते हैं जब कि तीर्थकर स्वयं भी मुक्त होते हैं और दूसरे आत्माओं को भी मोक्ष का मार्ग बतलाते हैं इसलिए जैनधर्म के मूल नमस्कार मंत्र में 'प्रथम णमो अरिहंताग' कहकर अर्हत् को नमस्कार किया गया ।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy