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________________ SSS जैन गौरव-स्मृतियाँ Sel थतन-शरीर आदि प्राप्त कर सुख-दुखादि का अनुभव करता है। ईश्वर दयालु है. तदपि जीव को अपने अदृष्ट के कारण दुःख भोगने पड़ते हैं। बात यह है कि महाभूत आदि से देह का निर्माण होता है. परन्तु किस प्रकार के भोग के योग्य देह करना यह अदृष्ट पर निर्भर है। महाभूत और अदृष्ट दोनों अचेतन हैं । इस लिए इन्हें सहायता करने के लिए और जीव को इसके कर्मों का फल देने के लिए एक सचेतन सृष्टा की आवश्यकता है यह कार्य ईश्वर करता है।" - . .... ..... इसके उत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि ईश्वर में करुणा होने पर भी यदि वह जीवों के दुःखों को दूर नहीं कर सकता है और भोगायतनदेहादि का आधार अदृष्ट पर ही होतो फिर ईश्वर को बीच में डालने की आवश्यकता ही क्या है ? क्यों न यही माना जाय कि जीव अपने कर्मों के अनुसार सुख-दुख पाता है । वह जैसा कर्म करता है उसके अनुसार स्वयं उसका फल प्राप्त कर लेता है। यदि यह कहा जाय कि अचेतन कर्म जीव को । फल कैसे दे सकते हैं ? जीव स्वयं अपने अशुभ कर्मों का फल भोगना नहीं चाहता है. इस लिए फल देने वाला तो ईश्वर मानना चाहिये । इसका उत्तर यह है कि जीव अपनी राग द्वेष रूप परिणति से कर्मपुद्गलों को अपने साथ सम्बद्ध कर लेता है। उन अात्मसम्बद्ध कर्मपुद्गलों में ऐसी शक्ति प्रकट हो जाती है कि वे जीव को उसके शुभाशुभ कर्मों का फल दे सकते हैं। जैसे नेगेटिव और पोजिटिव तारों में स्वतंत्र रूपसे विद्युत् पैदा करने की शक्ति नहीं है परन्तु जब वे दोनों मिल जाते हैं तो उनसे विद्युत् पैदा हो जाती है . . इसी तरह स्वतन्त्र कर्मपुद्गलों में जीव को सुख-दुख देने की शक्ति न होने . पर भी जब वे आत्मा से सम्बद्ध हो जाते हैं तब उनमें ऐसी शक्ति प्रकट हो जाती है। अतः जीव के शुभाशुभ कर्म ही उसे सुख दुःख का भोग कराने में । समर्थ है । इसके लिए ईश्वर को बीच में डालने की आवश्यकता नहीं है। . यदि ईश्वर को इस प्रपंच में डाला जाता है तो उसके ईश्वरत्व में बाधाएँ अाती हैं । ईश्वर का सच्चा स्वरूप नहीं रहने पाता है। : पाश्चात्य दर्शनकारों ने जगत् की नियम बद्धता और व्यवस्था के आधार पर उसे ईश्वरकत्त क बताया है परन्तु यह भी ठीक नहीं है । यह तो जड़ पदार्थ सम्बन्धी व्यवस्था का फल है । ग्रह-नक्षत्रों का संचरण, प्राणियों
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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