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________________ ★ जैन-गौरव-स्मृतियां नहीं था जिसमें विश्व का अस्तित्व न हो, और ऐसा कोई भावी क्षण नहीं होगा जिसमें इस विश्व का अस्तित्व न रहेगा। यह सदा से हैं और सदा रहेगा । यद्यपि यह विश्व प्रवाह की अपेक्षा अनादि अनन्त और शाश्वत है तदपि यह कूटस्थ नित्य नही है । इसमें प्रतिक्षण विविध परिवर्तन होते रहते हैं । विश्वः का कोई भी पदार्थ कभी एक सी अवस्था में नह रहीं सकता है । उसमें प्रतिपल परिवर्तन होता रहता है; इसलिए यह विश्व परिणामी है । जैन दर्शन की यह मान्यता है कि कोई भी पदार्थ निरन्वय नष्ट नहीं होता और सर्वथा नवीन भी उत्पन्न नहीं होता है परन्तु उसका परिणाम होता रहता है । अर्थात् उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है । विश्व के सम्बन्ध में भी जैन दर्शन का यही मन्तव्य है कि यह कभी नवीन उत्पन्न नहीं हुआ और कभी इसका सर्वथा विनाश भी नहीं होता है । यह अनादि अनन्त होतेहुए भी परिणमन-शील है। जड़ और चेतन की स्वतंत्र और परस्पराश्रित प्रवृत्ति से संसार का व्यवस्थित संचालन होता रहता है । : . •• झार विश्व की रचना के सम्बन्ध में दुनिया के दार्शनिकों में अनेक तरह के विचार-भेद पाये जाते हैं । इस विषय में जितने २ विचार हो सकते हैं वे सव भारतीय दर्शन परम्परा में पाये जाते हैं । जीव, ईश्वर और प्रकृति के स्पष्ट भेद को मानने वाले एकेश्वरवाद से लेकर "यह विश्व तो स्वप्न तुल्य मिथ्या है— असत् है केवल ईश्वर ही सत् है इस प्रकार के मायावाद तक के विविध मतों का इस भारतीय दर्शन परम्परा में विकास हुआ है । इसमें से मुख्य २ मतों का यहाँ उल्लेख किया जाता है: " ग्रह-नक्षत्रों से सुशोभित इस अनन्त विश्व का कोई निर्माता अवश्य होना चाहिए । इस निर्माणकर्त्ता की आज्ञा से ही नियमित रुप से सूर्य-चन्द्र का उदय और अस्त होता है इसकी आज्ञा को मान कर ही वायु सृष्टि कर्तृत्व वाद निरन्तर बहती रहती है, वर्षा होती है, पशु-पक्षी-तरु-लताजीव-जन्तु नव जीवन पाते हैं और समय-समय पर शीतउष्णता आदि ऋतुएँ अपना प्रभाव प्रकट करती हैं । सृष्टि के प्रांगन में जो नियमबद्धता दृष्टिगोचर होती है, जो व्यवस्था दिखाई देती है और जो वैचित्र्य एवं नवीनता मालुम होती है वह किसी सर्जनहार के बिना नहीं XXXXXXXX*X*X*X(?~8)*X*XX*X*XXXXXXX X(१७४)XX
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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