SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Se x जैन-गौरव स्मृतियां - द्वेष न हो, गुणी एवं साधुजनों को देखकर प्रमोद हो- उनके गुणों के प्रति के अनुराग हो, दुःखी जीवों के प्रति हृदय में करुणा का संचार हो और सुखदुःख में, शत्रु-मित्र में, योग-वियोग में, भवन या वन में समभाव रख सकते का सामर्थ्य हो, ऐसी भावना करनी चाहिए। ऐसा ही विचार, ऐसा ही वाचन और ऐसी ही प्रवृति होनी चाहिए । इस लक्ष्यको सामने रखकर यदि सामायिक व्रत स्वीकार किया जाय तो निस्संदेह आत्मा का अभ्युस्थान हो सकता है। दिग्नत में आजीवन के लिए दसों दिशाओं में जाने-आने की मर्यादा की जाती है, उसमें बहुत विस्तृत क्षेत्र रखा जाता है। प्रति दिन उतने विस्तृत - क्षेत्र में गमनागमन करने का प्रसंग नहीं आता है। अतः देशावकाशिक व्रत दिग्नत में रखे हुए क्षेत्र को एक दिन-रात के लिए यथा शक्य . . . . . . संक्षिप्तः करना देशावकाशिक व्रत है । सातवें व्रत में द्रव्यादि के भोगोपभोग की जो मर्यादा की है उसके अन्दर रहते हुए उस दिन के लिए भोगोपभोग के साधनों को और भी सक्षिप्त किया जाता है । इस तरह यह व्रतः६-७ वें व्रत में खुली रही हुई मर्यादा को अमुक काल के लिए सक्षिप्त करने वाला व्रत है । इस व्रत के द्वारा मर्यादित क्षेत्र से बाहर होने वाले आस्रव और आरम्भ से बचाव होता है और लोभ, स्वार्थ, द्रोह अधिकार एवं सत्ता के विस्तार की भावना पर अंकुश लगता है। क्षेत्रमर्यादित होने से पापप्रवृत्ति भी मर्यादित हो जाती है। । पर्व तिथियों के दिन अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य-यों सब प्रकार के आहार का त्याग करना (निर्जल आनशन करना ) स्नान, विलेपन-गंध, पुष्पमाला, .. ..अलंकार आदि का त्याग करना, अब्रह्म का सर्वथा त्याग पौषधोपवास व्रत करना, सावद्यप्रवृत्ति का सर्वथा परित्याग करना और आठों ..... प्रहर धर्मचिन्तनं करके अात्मा को पुष्ट करना पौपथोपवास व्रत कहलाता है। इस व्रत के आराधन से आत्मधर्म को प्रबल पुष्टि मिलती है, आत्मा के साथ पूरा सानिध्य होता है और बहिमुखता कम होकर आत्मा. भिमुखता का विकास होता है। अधिक न बन सके तो अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, और अमावस्या को-महीने में चार दिन-पौषध करना ही चाहिए। यदि इतना भी न बन सके तो जितने शक्य हों उतने पौपध करने का व्रत लेना चाहिए। . .
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy