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________________ जैन-गौरव ★त्र २ जैन -गौरव स्मृतियां >>><>< " यह मानना पड़ेगा कि एक ओर पहाड़ होगा तो दूसरी ओर खाई होगी । विश्व की सम्पत्ति जब एक जगह ढेर के ढेर रूप में संगृहीत होगी तो दूसरी तरफ उसका अभाव होगा । यह परिस्थिति शान्ति के लिए अत्यन्त भयावह है । 1 शरीर के आरोग्य के लिए यह आवश्यक है कि खून कहीं एक जगह एकत्रित न होकर सारे शरीर में प्रवाहित होता रहे । यदि खून कहीं एक जगह एकत्रित हो जाता है तो शरीर के दूसरे अवयव भी अशक्त हो जाते हैं और वह अवयव भी बेकार हो जाता है। इस तरह सारा शरीर स्वस्थ हो जाता है । इसी तरह संसार के शरीर में धनरूपी खून का दौरा समान रूप से होने पर ही उसका स्वास्थ्य ठीक रह सकता है । वह धन यदि कहीं इकट्ठा हो जाता है तो दूसरे लोग निर्धन हो जाते हैं और एकत्रित धन भी बेकार हो जाता है। इस लिए यह आवश्यके है कि धन का कहीं अमर्यादित संग्रह न हो । समाजवाद और साम्यवाद का भी यहीं सिद्धांत है। विश्व शांति के लिए इस सिद्धांत के पालन की अनिवार्य आवश्यकता है। जैनधर्म 'अपरिग्रहवाद' के द्वारा यही बात सिखाता है । - जो व्यक्ति संसार के समस्त पदार्थों पर से अपना ममत्व हटा लेता है और केवल आत्म साधना के लिए --जीवन निर्वाह के लिए अपनी कल्प मर्यादा के अनुसार अल्प से अल्प बाह्य साधन ग्रहण करता है वह अपरिग्रही है । अपरिग्रह होने के लिए मूर्छा का त्याग आवश्यक है । साधु, वस्त्र-पात्र आदि रखते हुए भी मूर्छा न होने से अपरिग्रही कहे जाते हैं। पास में कुछ भी न होने पर भी यदि चित्त में लालसा है तो वहां परिग्रह है । परिग्रह का सम्बन्ध अन्तवृर्तियों में रही हुई आसक्ति से है । अतः आसक्ति का त्याग करना चाहिये। जैनधर्म ने अनगार साधुओं के लिए सर्वथा छापरिग्रही होना आवश्यक बताया है और गृहस्थों के लिए परिग्रह की मर्यादा करने और इच्छा का परिणाम करने का व्रत बताया गया है । यह परिग्रह परिमाण व्रत कहलाता है। गृहस्थ को निम्नलिखित वस्तुओं के परिग्रह की मर्यादा करनी चाहिए: - (१) धन और धान्य (२) सोना चांदी आदि (३) मकान, जमीन, जागीर आदि (४) नौकर-चाकर और पशु प्राणी और (५) घर के दूसरे XXXXXXXXXXXX १६४**
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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