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________________ * जैन गौरव-स्मृतियाँ अत्याचार इसके उदाहता है और बड़े बड़े हो जाता है कि पाशास्त्र साधनों को व्यापार नष्ट कर दिया जाता है । अफ्रिका और भारत पर विदेशियों द्वारा ढाये गये अत्याचार इसके उदाहरण हैं। तात्पर्य यह है कि पूंजीवाद के विकास के लिए साम्राज्यवाद होता है और बड़े बड़े साम्राज्यों का संचालन पूजीवाद द्वारा हो रहा है । इस पर से यह प्रतीत हो जाता है कि परिग्रह क्यों पाप है । यह भयंकर से भयंकर पापों को जन्म देता है । इस लिए शास्त्र कारों ने परिग्रह को पाप और वन्धन का प्रधान कारण बताया है। शास्त्रकार जहाँ परिग्रह से दुःख का होना प्रतिपादित करते हैं वहां हम देखते हैं कि संसार में सर्वत्र परिग्रह को ही सुख का एक मात्र साधन समझा जा रहा है । येन केन प्रकारेण धन संग्रह करने में ही मनुष्य ने सुख समझ रखा है । और इसके लिए ही संसार में धमाचौकड़ी मची हुई है। मनुष्य दुःखों की परवाह न करता हुआ धनोपार्जन में मशगूल हो रहा है। वह धन . के लिए बड़े २ पर्वतों को लांघता है, समुद्र यात्रा करता है, विदेशों में भटकता है, नये नये कल कारखाने खोलता है और न जाने क्या क्या करता है। सांसारिक सुखोपभोग के साधनों को अधिक से अधिक संगृहीत करना, यही आज कल के मानव का लक्ष्य विन्दु हो रहा है। यह तो स्पष्ट है कि इसके - मूल में यह धारणा कार्य कर रही है कि इन वाह्य साधनों में ही सुख रहा हुआ है। अपनी मानी हुई इस भ्रान्त धारणा के कारण मनुष्य सारी शक्ति लगा कर धन-दौलत, सोना-चाँदी, मोती-माणक-हीरे, चंगले, मोटर, वाग-बगीचे आदि जुटाने के लिए प्रयत्न करता है । वह इनमें सुख के दर्शन करना चाहता. है परन्तु अफसोस है कि इन सव सामग्रियों के मिल जाने पर भी वह सुख से वंचित रहता है । जैसे-जैसे पदार्थों की प्राप्ति होती जाती. है वैसे वैसे इच्छाओं और आकांक्षाओं का विस्तार होता जाता है। इसलिए पदार्थ-प्राप्ति में सुख का अनुभव नहीं होता अपितु अप्राप्त पदार्थ की कामना और उसका. प्रभाव पीड़ित, करता रहता है । यही परम्परा चलती रहती है और इच्छाओं का गुलाम बना हुआ व्यक्ति कभी सुख की झाँकी भी नहीं प्राप्त कर सकता है । इस लिए कहा गया कि इच्छा हुआगाससभा अणन्ता" इच्छा आकाश के समान अनन्त है । उसकी पूर्ती कदापि नहीं हो सकती। जिस प्रकार चालनी जल से कभी नहीं भरी जा सकती है इसी तरह इच्छाएँ कभी तृप्त नहीं हो है। यह तो हो सुख रहा
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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