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________________ S E * जैन-गौरव-स्मृतियां * कि शास्त्रकारों ने परिग्रह को क्यों कर पाप और बन्धन कहा है। अतः यहाँ परिग्रह का विश्लेषण किया जाता है। जैन शास्त्रानुसार जब मनुष्य भोगभूमि में था उस समय प्रकृतिप्रदत्त ( कल्पवृक्षों के द्वारा दिये गये) साधनों के द्वारा उसका जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता था । उस समय उसकी आवश्यकताएँ अल्प थीं और प्रकृति सम्पत्ति अधिक थी इस लिए उस समय किसी प्रकार का संगह नहीं किया जाता था । आखिर इस युग का अन्त आया। प्रकृति से. अब निर्वाह नहीं होने लगा । कर्मभूमि का युग उपस्थित हुआ और मनुष्य को परिश्रम करना पड़ा। साथ ही मनुष्य की आवश्यकताएँ यहां तक बढ़ गई कि एक मनुष्य से सारी आवश्यकताएँ पूरी न हो सकती थी इसलिए कार्य का विभाग किया गया । इस तरह मनुष्य सामाजिक प्राणी बन गया। सब मनुष्यों की योग्यता और रुचि बरावर नहीं थी। कोई परिश्रमी थे कोई आरामतलब । कोई बुद्धिमान थे, कोई. साधारण; इसलिए आवश्यक था कि मनुष्यों के कार्यों में भेद हो। जो अधिक काम करते हैं वे बदले में अधिक प्राप्त करते उन्हें भोगोपभोग की सामग्री अधिक मिलने लगी। सामग्री अधिक देने का - आशय तो यह था कि वह उस सामग्री का उपयोग करलें परन्तु धीरे धीरे उपभोग के बदले संग्रह की भावना बढ़ती गई। यहीं से परिग्रह बढ़ने लगा और दुनिया में अशान्ति का वीजारोपण हुआ। यह संग्रह वृति ही समाज में विषमता पैदा करनेवाली सिद्ध हु. इससे समाज का एक वर्ग अधिकाधिक धन सम्पन्न होने लगा और दसरा वर्ग उतरोत्तर कंगाल होने लगा। यह अपनी जीवनोपयोगी वस्तुओं को पाने में भी असमर्थ होगया । यह स्वाभाविक है कि अगर कहीं ढेर होगा तो अवश्य कहीं न कहीं खड्डा होगा । जब जीवनपयोगी पदार्थों का एक जगह संग्रह होने लगा तो दूसरे व्यक्ति भूखे मरने लगे। जब मुद्रा का प्रचार हुआ तब मुद्रा का भी संग्रह होने लगा। मुद्रा का संग्रह करना भी जीवन की सामग्री के संग्रह के समान ही हानिकर है क्योंकि इससे दूसरे लोग मुद्रा से वंचित रह जाते हैं तो वे क्या देकर अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करे इस तरहं संग्रह का परिणाम हुआ-समाजिक विषमता, कंगाली और उत्पीडन । . . .
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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