SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 591
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३८ ७ ८ श्रीदशवकालिकसूत्रे । उसे तारिसं-उस प्रकारका अर्थात् मद्य पीनेवाला जाणंति-जानलेते हैं (अतः वे उसकी) गरिहंति-निन्दा करते हैं ॥४०॥ टीका-'आयरिए' इत्यादि । तादृशः-पुरोदीरितदुराचारशील: साधुः आचार्यान् अपिच श्रमणान् रत्नाधिकान् साधुन् नाराधयति कलुषितान्तःकरणत्वादिति भावः, येन हेतुना गृहस्था अपि तादृशं तथाविधं दुराचारिणं जानन्ति तेन हेतुना णं-तं साधुं गर्हन्ते-निन्दन्ति, स सकलजननिन्दनीयो भवतीति सूत्रार्थः ॥ ४०॥ अकृत्यसेविदोपानुपसंहरन्नाह-'एवं तु' इत्यादि । मूलम्-एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवज्जए । तारिसो मरणंतेवि, नाराहेइ संवरं ॥४१॥ छाया-एवं तु अगुणप्रेक्षी, गुणानां च विवर्जकः । तादृशः मरणान्तेऽपि, नाराधयति संवरम् ॥४१॥ सान्वयार्थः-एवं तु-इस प्रकार अगुणप्पेही प्रमादादि दोपोंको ग्रहण करनेवाला च और गुणाणं-ज्ञानादि गुणोंका विवजए त्यागी तारिसो-उस प्रकारका साधु मरणंतेविस्मरणकालमें भी सवरं-संवर-चारित्र-की नाराहेइ-आराधना नहीं कर सकता ॥४१॥ १ टीका-एवम्-उक्तरीत्या तु अगुणप्रेक्षी दोपदर्शी प्रमादादिदोपनिरत 'आयरिए' इत्यादि। ऐसा दुराचारी साधु आचार्य तथा रत्नाधिक श्रमणकी भी आराधना नहीं करता, क्योंकि उसका अन्तःकरण कलुषित होजाता है, जिससे कि गृहस्थ भी उस साधुको पहचान लेते हैं और उसकी निन्दा करते हैं। तात्पर्य यह है कि ऐसा साधु सवका निन्दनीय बन जाता है ॥ ४० ॥ 'एव तु' इत्यादि । प्रमाद आदि दोषोंमें लीन, सम्यग्ज्ञान-दर्शन आयरिए० त्यादि. मेवो शयारी साधु याय तथा २ाधि श्रमानी પણ આરાધના કરતું નથી, કારણ કે એનું અત.કરણ કલુષિત થઈ જાય છે, જેથી ગૃહસ્થ પણ એ સાધુને પિછાણી લે છે અને એની નિંદા કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે એ સાધુ સોને નિંદનીય બની જાય છે. (૪૦) एवं तु. त्यात प्रभार मा योमा बीन, सम्यग्ज्ञान-दशन-यात्रि
SR No.010497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages623
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy