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________________ - ___ अध्ययन-५ उ. १ गा. १०-११-ब्रह्मचर्यव्रतयतना छाया--अनायतने चरतः संसर्गेणाऽभीक्ष्णम् । भवेदवतानां पीडा, श्रामण्ये च संशयः ॥१०॥ वेश्या के पाड़े में एकवार जाने का दोष कह कर अब अनेक वार जानेका दोष कहते हैं सान्वयार्थः-अणाययणे वेश्याके पाड़ेमें अथवा इस प्रकारके दूसरे अयोग्य स्थानों में चरंतस्स-गोचरी जानेवाले साधुके अभिक्ख गंवारंवार संसग्गीए3 संसर्ग होने के कारण क्याण-महावतोंको पीला-पीडा हुज होती है अर्थात् वे दुषित हो जाते हैं । (इतना ही नहीं किन्तु उस साधुके) सामन्नम्मि य-चारित्रसाधुपने में भी संसओ सन्देह हो जाता है ॥१०॥ टीका-अनायतने-अयोग्यस्थाने वेश्यागृहसमीपादौ अभीक्ष्ण वारंवारम् चरता-पर्यटतः साधोः संसर्गेण-प्रेक्षणादिसंपर्कण (मूले प्राकृतवात्स्त्रीत्वम् ) व्रतानां ब्रह्मचर्यादीनां पीडा-विराधना, चकारोऽप्यर्थे, नैतावत्येव हानिः किन्त्वन्याऽपीत्याह-श्रामण्ये चारित्रेऽपि संशयः पालनीयतासन्देहो भवेत, तथाहि " दुश्वरब्रह्मचर्यादेर्भविष्यति फलं न वा ?।। चेन्न जाने कियत् कीहक्, कदा वा तद्भविष्यति ॥१॥ तथाऽमाप्तसुखप्राप्ति, मुद्दिश्य विहितो मया। उपस्थितमुखत्याग उचितः किं न वोचितः ॥२॥” इत्यादि। वेश्या-घरके समीप या ऐसेही अन्य अयोग्य स्थानोंमें बार बार गमन करनेवाले साधुके वेश्याको देखने आदि संसर्गसे ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंमें पीड़ा होजाती है, अर्थात् व्रत दूषित होजाते हैं । यही एक हानि नहीं है किन्तु उसके श्रामण्य (चारित्र)में भी संदेह होजाता है कि "इस दुश्चर ब्रह्मचर्यका फल मिलेगा या नहीं ?, यदि मिलेगा भी तो न जाने कितना मिलेगा, कैसा मिलेगा, और कब मिलेगा ? ॥१॥ मैंने अप्राप्त सुखकी प्राप्तिके लिए प्राप्त सुखका त्याग कर दिया है सो यह-उचित किया है या अनुचित ? ॥२॥" इत्यादि। વેશ્યાગ્રહની સમીપે યા એવાજ અન્ય અગ્ય સ્થાનેમાં વારંવાર જવાવડે વેશ્યાને જેવા આદિ સ સર્ગથી સાધુના બ્રહ્મચર્ય આદિ વ્રતમાં પીડા થઈ જાય છે, અર્થાત્ વ્રત દૂષિત થઈ જાય છે આ એક જ હાનિ નથી પરંતુ એના શ્રમણ્ય (ચારિત્ર)મા પણ સ દેહ ઉત્પન્ન થાય છે કે-“આ દુર બ્રહ્મચર્યનું ફળ મળશે કે નહિ?, જે મળશે તે પણ શી ખબર કેટલું મળશે, કેમ મળશે અને કયારે મળશે? (૧) મે અપ્રાસ સુખની પ્રાપ્તિને માટે પ્રાસ સુખને ત્યાગ કરી નાખે છે तो मेलयित यु छ : मनुथित ? (२)" छत्याल,
SR No.010497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages623
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size28 MB
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