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________________ -- १६० श्रीदशकालिकसूत्रे तथा वीजनं ग्रीष्मादिऋतौ तालवृन्तादिना वातादिसञ्चालनम् (९), अत्राऽऽरम्भादयो दोषा जायन्त इति स्वयमवगन्तव्यम् । औदेशिकक्रीतकतयोः स्वरूपं सप्रपञ्च पश्चमाध्ययने वक्ष्यते ॥२॥ मूलम्-संनिही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए । संवाहणा दंतपहोयणा य, संपुच्छणा देहपलोयणा य॥३॥ (छाया)-सनिधि-गृह्यमत्रं च, राजपिण्डः किमिच्छकः । संवाहनं दन्तपधावनं च, संप्रच्छनं देहप्रलोकनं च ॥३॥ सान्वयार्थः-(१०) संनिही रात्रिमें आहार आदिका संचय (११) गिहिमत्ते-गृहस्थके पात्रमें भोजन करना य और (१२) रायपिंडे-राजाके लिए बनाया हुआ आहार (१३) किमिच्छए-दानशाला या अन्नक्षेत्र आदिका आहार (१४) संवाहणा-शरीरकी मालिश करना (१५) दंतपहोयणा-दांत मांजना य=और (१६) सपुच्छणा-गृहस्थसे कुशलप्रश्न पूछना य और (१७) देहपलोयणा-दर्पण या जलमें मुख आदि देखना ॥३॥ टीका—सनिधीयते सम्यक्तया नितरां स्थाप्यते नरकादिष्वात्माऽनेनेति संनिधिः संभवादत्र घृतादिसञ्चयकरणम् (१०), (९) ग्रीष्मादि कालमें पंखा चलाना यह व्यजन-अनाचार है । इनसे आरम्भ आदि दोष होते हैं सो स्वयं समझना चाहिये। औदेशिक और क्रीतकृतका विस्तारपूर्वक विवेचन पांचवें अध्ययनमें किया जायगा ॥२॥ (१०) संनिधि-जिस अनाचारका सेवन करनेसे आत्मा नरकादि कुगतियोंमें गिरती है अर्थात् घृत औषध आदिका रात्रिमें वासी रखना संनिधि-अनाचार है । (6) श्रीभा आमा यमी यता से व्यन-मनाया२ छ. એથી આર ભ આદિ દેષ લાગે છે તે પિતેજ સમજવું જોઈએ ઓશિક અને કૃતકૃતનું વિસ્તારપૂર્વક વિવેચન પાંચમા અધ્યયનમાં કરવામાં આવશે (૨) (૧૦) સનિધિ-જે અનાચારનું સેવન કરવાથી આત્મા નરકાદિ દુર્ગતિમાં પડે છે, અર્થાત્ ઘી ઓસડ આદિ રાત્રે વાસી રાખવાં તે સનિધિ-અનાચાર છે.
SR No.010497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages623
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size28 MB
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