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________________ षड् जीवनिका २६ फिरते जीव); तथा (४) स्थावर (पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के जीव । इन प्राणियों का प्रतिपात ( घात) नहीं करना चाहिये, दूसरें के द्वारा कराना नहीं चाहिये और घात करनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करना चाहिये । शिष्य :- हे गुरुदेव ! जीवनपर्यंत मैं उक्त तीन प्रकार के करणों और तीनों योगों से (अर्थात् मन, वचन और काय से) हिंसा नहीं करूंगा, नहीं कराऊंगा और हिंसा करनेवाले की अनुमोदना भी नहीं करूंगा और पूर्वकाल में मैंने जो कुछ भी हिंसा द्वारा पाप किया है उससे मैं निवृत्त होता हूं। अपनी श्रात्मा की साक्षी पूर्वक उस पापकी निंदा करता हूं; आपके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अबसे ऐसे पापकारी कामसे अपनी ग्रात्मा को सर्वथा विरक्त करता हूं । हे पूज्य ! इस प्रकार प्रथम महाव्रत के विषय में मैं प्राणातिपात ( जीवहिंसा) से सर्वथा निवृत्त होकर सावधान हुआ हूं ॥ १ ॥ शिष्यः - हे भगवन् । अव दूसरे महाव्रत में क्या करना होता है ? गुरुदेवः - हे भद्र ! दूसरे महाव्रत में मृपावाद (असत्य भापण ) का सर्वथा त्याग करना पडता है । शिष्यः - हे पूज्य ! मैं सर्व प्रकार के मृपावाद का प्रत्याख्यान ( त्यागकी प्रतिज्ञा ) लेता हूं । गुरुदेवः - हे भद्र! क्रोधसे, मानसे, मायासे श्रथवा लोभसे स्वयं असत्य न बोलना चाहिये दूसरों से असत्य न बुलवाना चाहिये और असत्य बोलनेवाले की अनुमोदना भी न करनी चाहिये । शिष्यः - हे पूज्य ! मैं जीवनपर्यंत उक्त तीन करणों (कृत, कारित और अनुमोदन ) तथा तीन योगों (मन, वचन एवं काय )
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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