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________________ पुलकाचार - - - - - -- टिप्पणी-मिथ्यात्व (अशान), अव्रत, कपाय, प्रमाद और अशुभ योग इन ५ प्रकारों से पापों (कर्मों) का आगमन होता है इसलिये इन्हें 'आस्रव द्वार' कहते हैं। [१२] वे समाधिवंत संयमी पुरुष ग्रीष्म ऋतुमें उग्र आतापना (गर्मी का सहना) सहते हैं। हेमंत (शीत) ऋतु में वस्त्रों को अलग कर ठंडी सहन करते हैं और वर्षाऋतु में मान अपने स्थानमें ही अंगोपांगों का संवरण (रोककर) कर बैठे रहते हैं। टिप्पणी-साधुजन तीनों ऋतुओं में शरीर और मन को दृढ बनाने के लिये भिन्न २ प्रकार की तपश्चाएं किया करते हैं । अहिंसा, संयम, और तपकी त्रिपुटी की आराधना करना यही साधुता है और भिन्न २ ऋतुओं में कष्ट पड़ने पर भी उसका प्रतीकार न करने में ही साधुत्व की रक्षा है। [१३] परिपह (अकस्मात पाने वाले संकटों) रूपी शत्रुओं को जीतनेवाले, मोह को दूर करनेवाले और जितेन्द्रिय (इन्द्रियों के विपयों को जीतनेवाले) महर्षि सय दुःखों का नाश करने के लिये संयम एवं तपमें प्रवृत्त होते हैं। [१५] और उनमें से बहुत से साधु महात्मा दुष्कर तप करके और अनेक असह्य कष्ट सहन करके उच्च प्रकार के देवलोक में जाते । है और बहुत से कर्म रूपी मल से सर्वथा मुक्त होकर सिद्ध (सिद्ध पदवी को प्राप्त) होते हैं। [१] (जो देवगति में जाते हैं वे संयमी पुरुप पुनः मृत्युलोक में पाकर) छकाय के प्रतिपालक होकर संयम एवं तपश्चर्या द्वारा पूर्वसंचित.समस्त कर्मों का क्षय करके सिद्धिमार्ग का आराधन करते हैं और वे क्रमशः निर्वाण को प्राप्त होते हैं। टिप्पणी-जीवनपर्यंत अपने निमित्त (कारण) से किसी को दुःख न पहुंचे कैसी जागृत वृत्ति से रहना मौर निरंतर साधना करते रहना यही भनयधर्म का शुख ध्येय है।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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