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________________ द्रुम पुष्पिका -(0)-—————— ( वृक्ष के फूल संबंधी ) १ वस्तुका का स्वभाव ही उसका धर्म है। उसके बहुत से प्रकार हो सकते हैं, जैसे- देहधर्म, मनोधर्म, आत्मधर्म । उसी तरह व्यक्तिधर्म, समाजधर्म, राष्ट्रधर्म, विश्वधर्म, आदि भी । यहां तो विशेष करके साधुता निवाहने के उस साधुधर्म को समझाया गया है जिसमें मुख्य रूप से नहीं तो गौणरूप में ही इतर धर्मों (व्यक्तिधर्म, समाजधर्म, राष्ट्रधर्म, - और विश्वधर्म) का समावेश होता है। भगवान महावीर के पाट पर बैठकर उनके जिन प्रवचनों को श्री सुधर्मस्वामीने जंबूस्वामी से कहे थे उन्हीं प्रवचनों को अपने शिष्य मनक के प्रति श्री स्वयंभव स्वामीने इस प्रकार कहा था । गुरुदेव वाले : [1] धर्म, यह सर्वोत्तम ( उच्च प्रकार का ) मंगल, (कल्याण) है । अहिंसा, संयम और तप — यही धर्म का स्वरूप है। ऐसे धर्म में जिसका मन सदैव लीन रहता है, उस पुरुपको देव भी नमस्कार करते हैं। : टिप्पणी- कोई भी मनुष्य अपना कल्याण (हित) देखे बिना किसी भी शुभ कार्य का प्रारंभ नहीं करता इसलिये कल्याण की सब किसी को आबय
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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