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________________ प्रथम चूलिका में वाह्य एवं आंतरिक कठिनताओं के कारण. संयमी जीवन छोडकर गृहस्थाश्रम में पुनः जानेकी इच्छा की संभावना बताकर मात्र जैनदर्शन के सिद्धान्तों का ही नहीं किन्तु मनुष्य मात्र के हृदयमें उत्पन्न होनेवाली अच्छी बुरो, बलिष्ठ तथा निर्बल स्वाभाविक' भावनाओंका तादृश्य चित्र खींच कर सामने खडा कर दिया है । यह अध्ययन इस वातकी साक्षी दे रहा है कि इस ग्रंथके रचयिता मानस शास्त्र के बडे ही गहरे अभ्यासी थे । द्वितीय चूलिका में आर्य के नियमों का वर्णन किया है। इस प्रकार दर्शवैका लिकका साद्यंत सुन्दर संकलन पूरा होता है । दशवैकालिक की विशिष्टताएं इस ग्रथमें प्रवेश करते ही, यह हमें सीधा मोक्षका मार्ग बताता है । अर्थात् वीतराग भावकी पराकाष्ठा और उसकी प्राप्ति का मार्ग ही धर्म है । 'वत्थु सहाम्रो धम्मो' अर्थात् वस्तु के स्वभाव को 'धर्म' कहते हैं । इसमें आत्मस्वरूप की प्राप्ति कराने वाले धर्म को सुन्दर व्याख्या दी है और साथ ही साथ उस आत्मधर्म के अधिकारी एवं उस धर्मकी साधना का अनुक्रम भो बताया है । जबतक मनुष्य अपनी योग्यता को प्राप्त नहीं होता अर्थात् मानवधर्मकी प्राप्ति नहीं करता तबतक उसे आत्मधर्म को साधना में सफलता नहीं मिल सकती । इस अनुपको समझाने के लिये धर्मके साथ 'वृक्षकी सुघटित उपमा देकर धर्मरूपी वृक्ष का मूल विनय को बताया है। विनय ( विशिष्ट नीति) में मानवता, सज्जनता, शिष्टता और साधुताका समावेश होता है और ये सब गुण मोक्षं धर्म की सीढियां हैं । (३०)
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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