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________________ विविक्त चर्या आचार रागद्वेयके नाश पर ही तो अवलंबित है । ऐसे साधक के लिये ममता का सर्वथा त्याग करना ही उचित है। 1 १८८७ [६] श्रादर्श मुनि श्रसंयमी जनों की चाकरी न करे; उनको श्रमिवादन ( भेंटना ), चंदन अथवा नमस्कार आदि न करे किन्तु असंयमियों के संगसे सर्वथा रहित आदर्श साधुयों के संग में ही रहे । इस संसर्ग से उसके चारित्रको हानि न होगी । टिप्पणी - मनुष्य का कुछ स्वभाव ही ऐसा है कि जिसके साथ अति परिचय में वह आता है उसकी गुलामी करने लग जाता है, जिसकी वह पूजा करता है वैसे ही उसका मन तथा विचार होवे जाते हैं। और अन्तमें वह वैसाही हो जाता है क्योकि संसर्गजन्य आंदोलनों का उस पर व्यक्त किंवा अव्यक्त कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य पडता ही है । इसलिये शास्त्रों में साधु- संग की महिमा के पुल बांध दिये गये हैं और खल-सगंति की भरपेट निंदा की हैं । संयम के इच्छुक साधक को अपने से अधिक गुणवान की संगति करना ही योग्य हैं । [१०] ( यदि उत्तम संग न मिले तो क्या करे ? ) भिक्षु को यदि अपने से अधिक अथवा समान गुणवान साथी न मिले तो सांसारिक विषयों से अनासक्त रहकर तथा पापों का त्यागकर सावधानी के साथ एकाकी बिचरे ( किन्तु चारित्रहीन का संग तो न करे ) टिप्पणी- यद्यपि जैनशास्त्रों में एकचर्या को त्याज्य कहा है क्योंकि एकाकी विचरने वाले साधुको निष्कलंक चारित्र पालना असंभव जैसी कठिन बात है और यदि उसके ऊपर कोई छत्र ( आचार्य ) आदि न हो तो ऐसा साधक समाज की दृष्टि से भी गिर जाता है। इसी तरह के और भी अनेक दोष एकाकी विचरने से संभव है फिर भी जिस संग से संयमी जीवनमें विघ्न आने की संभावना हो उसकी अपेक्षा एकाकी विचरना उत्तम
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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