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________________ भिनु नाम १६५ जगत के पदार्थों का जो जीव जितना उपभोग करता है उससे अधिक अधिक प्राप्त करने की सतत स्वार्थवृत्ति ( तृष्णा ) उसके हृय के अंतस्तल में छिपी रहती है। यह मनुष्य मात्रका स्वभाव है कि वह अपनी संपत्ति अथवा वैभव पर सन्तुष्ट नहीं होता। वह सदैव उससे अधिक के लिये प्रयत्न करते रहना चाहता है। कहा भी गया है कि "तृष्णा का अंत नहीं है"। वही कारण है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी आवश्यकता से बहुत अधिक पदार्थों को अपने अधिकार में लिये बैठा है और जो कुछ उसके पास है उससे भी कई गुना अधिक वह अपने पास रखना चाहता है; किन्तु जब उसमें अर्पसता भाव प्रकट होता है तब सर्व प्रथम उसकी तष्णा बढनी बंध हो जाती है और वह दान किंवा परोपकार के रूपमें प्रकट होती है। इसी तरह की वृत्तियों के प्रभावसे इस जगत में साधनहीन तथा अशक्त जीवों का निर्वाह होता रहता है। इतना विवेचन करने का तात्पर्य इतना ही है कि गृहस्थ साधु को जो दान करता है वह अपनी उपकार भावना से ही करता है। परन्तु इस दानवृत्ति अथवा परोपकार वृत्तिका यदि आदर्श भितु लाभ लें तो दूसरे अशक जीवों को मिलनेवाले भागमें कमी पडे बिना न रहे। इसलिये वह तो वही भिक्षा लेता है जो गृहस्थ अपनी आवश्यकताओं को FARर बाकी के बचे हुए भाग साधुको देता हो, और इसीलिये साधु का ऐसी भिक्षा को 'मधुकरी' को उपमा दी है और ऐसी मिक्षा ही साधु तथा ग्रहस्थ दोनों के लिये उपकारी भी है। इस प्रकार इस निमित्तसे गृहस्थोंमें भी सयंमवृत्तिका आविर्भाव होता रहता है। जैनदर्शन में दान अथवा परोपकार की अपेक्षा संयम को उच्चकोटिका स्थान दिया है क्योंकि दाता अपने उपभोग की यथेष्ट सामग्री लेकर उससे बची हुई संपत्तिमें से ही दान करता है। परोपकार मे अंतस्तल में भी प्रत्युपकार की भावना छिपी हुई है जब कि संयम में तो स्वार्थ का नाम तक भी
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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