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________________ १६० दशवकालिक सूत्र - - - ज्ञान होगा'--ऐसा मानकर अभ्यास करे । (२) 'अभ्यास करनेसे मेरे चित्त की एकाग्रता बढे'-ऐसा विश्वास रखकर अभ्यास करे । (३) 'मैं अपनी आत्माको अपने धर्ममें पूर्ण रूपसे स्थिर करूंगा'-ऐसा निश्चय करके अभ्यास करे, तथा (४) 'यदि मै धर्ममें बराबर स्थिर होऊंगा तो दूसरों को भी धर्ममें स्थापित कर सकूँगां'-ऐसी मान्यता रखकर अभ्यास करे। इस प्रकार ४ पद हुए। इनमें से अंतिम चौथा पद विशेष उल्लेख्य है । तत्संबंधी श्लोक श्रागे कहते हैं:[३] श्रुतसमाधिमें रक्त हुआ साधक सूत्रों को पढकर ज्ञानकी, एकान चित्तं की, धर्मस्थिरताकी तथा दूसरों को धर्म में स्थिर करनेकी शक्ति प्राप्त करता है इसलिये साधक को श्रतसमाधिमें संलग्न होना चाहिये। [] तप समाधिमें हमेशां लगा हुआ साधक भिन्न भिन्न प्रकारके सद्गुण के भंडार रूपी तपश्चर्या में सदैव लगा रहे और किसी भी प्रकारकी आशा रक्खे विना वह केवल कर्मों की निर्जरा करने की ही इच्छा करे । ऐसा ही साधु पूर्व संचित कर्मों का तय करता है। टिप्पणी-सर्व दिशाच्यापी यश को 'कीर्ति, अमुक एक दिशा व्यापी यश को 'वर्ण' केवल एक ग्राम में व्याप्त यश को 'शब्द' और केवल कुल में ही फैले हुए मर्यादित यशको ‘श्लोक' कहते हैं। श्राचार समाधि भी चार प्रकार की होती है। वे भेद इस प्रकार है:-(१) कोई भी साधक ऐहिक स्वार्थ के लिये साधु आचारोंका सेवन न करे, (२) पारलौकिक स्वार्थके लिये भी साधु-आचारों को न सेवे । (३) कीति, वर्ण, शब्द या श्लोक के लिये साधु-प्राचारों को न पाले । (४) निर्जरा के सिवाय अन्य किसी हेतु से साधु
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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