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________________ दशवैकालिक सूत्र १२४ जड, मूर्ख, तथा अदूरदर्शी वनी रहती है किन्तु प्रजामें ज्ञान, गुणग्राहकता तथा विवेकबुद्धि आते ही उस पूज्यताका रंग उड जाता है और वह पामरता के रूपमें पलट जाती है । इस लिये महर्षियोंने ऐसी क्षणिक पूज्यता को प्राप्त करनेका लेशमात्र भी निर्देश नहीं किया । इस उद्देश में जिन गुणों से पूज्यता प्राप्त होती है उनका वर्णन किया है । गुरुदेव बोले : [1] जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण निकी सुश्रूषा करने में निरन्तर सावधान रहता है उसी प्रकार शिष्यको घपने गुरुकी सेवा करने में सावधान रहना चाहिये क्योंकि श्राचार्यकी दृष्टि और इशारों से ही उनके मनोभावको जानकर जो शिष्य उनकी इच्छात्रोंकी पूर्ति करता है वही पूजनीय होता है । ' [२] जो शिष्य सदाचार की श्राराधनाके लिये विनय करता है, उनकी सेवा करते हुए गुरु श्राज्ञा सुनते ही उसका पालन करता हैं और गुरुकी किंचिन्मात्र भी अवगणना नहीं करता, वही साधक पूजनीय होता है । [३] वो साधक अपनेसे उमरमें छोटे किन्तु ज्ञान अथवा संयममें वृद्ध की विनय करता है, गुणीजनोंके सामने नन्नभावसे रहता है तथा सदैव सत्यवादी, विनयी एवं गुरुका श्राज्ञापालक होता है वही पूजनीय होता है । '[४] जो भिन्तु संयमयात्राके निर्वाह के लिये हमेशा सामुदानिक, विशुद्ध, तथा अज्ञात घरोंमें गोचरी करता है और श्राहार न मिलने पर खेद तथा मिलने पर बढाई नहीं करता है वही पूजनीय होता है । [2] संथारा, शय्यास्थान, श्रासन तथा श्राहारपानी सुन्दर अथवा बहुत विक प्रमाण मिलने पर भी जो थोडेकी ही इच्छा रखता है
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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