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________________ दशवकालिक सूत्र उनको दिनरात दोन्स टो। २ का भोगते हुए हम सब देखने है, फिर भी उनका कुछ भी कदर नहीं होता। उन पर तो कान करते हुए मो हंर हो पड़ते हैं ! अविनीत तया विनीत होनेके फलका यह छत बहुत उत्तम हैं। इसी तरह विनीत भला तथा भविनीत भालाके विपर्ने मौ सनम्ना चाहिये। [ex.] ऊपर के दृष्टांत के अनुसार, इस संसारमें भी जो नरनारी विनयसे रहते हैं उनपर खूब ही मार पडनेसे उनमें से बहुवों की तो इन्द्रियां भंग हो जाती है अथवा सदाके लिये घायल (विकलांग) हो जाते हैं। [6] परन्तु जो नरनारी विनय की आराधना करते हैं वे इस लोकमें महा यशस्वी होकर महा संपत्तिको प्राप्त करते हैं और तरह २ के सुख भोगते हुए दिखाई देते हैं। [१०] (देवयोनिनें भी अविनयी जीवोंकी क्या गति होती है उसे बताते हैं) अविनीत जीव देव, यक्ष, भवनवासी देव होने पर भी अविनयता के कारण ऊंची पदवी न पाकर उन्हें केवल बडे देवोंकी नौकरी ही करनी पड़ती है और इससे वे दुःखी देखे जाते हैं। . [१] किन्तु जो जीव सुविनीत होते हैं वे देव, यह, भुवनवासी देव होकर उनमें भी महा यशस्वी तथा महा संपत्तिवान देव होते हैं और अलौकिक सुख भोगते हैं। टिप्पणी-सुख और दुःखका अनुभव आत्मविशुद्धि पर निर्भर है और भानविशुद्धिका आधार तद्धनको आराधना पर है। दाह्य संपत्तिकी प्राप्ति भले हो पूर्व शुभ बनके उददसे हो किन्तु उतले मिलनेवाला सुख या दुःख तो भात्मशुद्धि जयवा भालाकी मलिनता पर ही निर्भर है इस लिये पानशुद्धि करना यह जोवनका मुख्य ध्येय है। ऐसा महापुरुषोंने कहा है। बहुतले धनी मनुष्य भी संचारमें घोर नट और सनान भोगते हुए देखे जाते है और कोई
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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