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________________ दर्शवैकालिक सूत्र I टिप्पणी- जिस वृक्षका फल मोक्ष हो वह वृक्ष कितना महत्त्वशाली होगा, यह बात आसानीसे समजमें आ जाती है । और इसीलिये उस धर्मका वर्णन इस ग्रंथके पहिले अध्ययनमें संक्षेपसे किया है। यहां धर्मको वृक्षको उपमा देने' का हेतु यह है कि धर्मकी भूमिकाओं का भी वृक्ष जैसा क्रम होता है । क्रम सिवाय अथवा क्रमके विपरीत यदि किसी वस्तुका व्यवहार किया जाय तो उससे लाभ होने के बदले हाबि ही होती है क्योंकि वस्तुका एक के बाद दूसरी पर्याय होना उसका स्वभाव है इस लिये तदनुकुल ही व्यवहार होना चाहिये इस सूक्ष्म वातका निर्देष करने के लिये ही यह ष्टांत दिया है । वस्तुतः जितना माहात्म्य सद्धर्मका है उतना ही यहां पर विनयका अर्थ - विशिष्ट नीति अर्थात् सज्जनका कर्तव्य है । दया, प्रेम विवेक, संयम, परोपकार, परसेवा आदि सब गुण सज्जनके कर्तव्य ही हैं। इन कर्तव्यों को करनेवाला ही विनीत हो सकता है । विनय से हो महापुरुषोंकी कृपा प्राप्त होती है और विश्वमें सुयशकी सुगंध प्रसरती है; इसीसे सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है और तो क्या, आत्मदर्शन होकर साक्षात् मों की भी प्राप्ति इसीसे होती है 1 माहात्म्य विनयका है I यह विनय ही सद्धर्मरूपी कल्पवृक्षका मूल है, धैर्य उसका कंद है, शान तना है, शुभभाव - जिससे उसे पोषण मिलता है, उसकी त्वचा है, पूर्ण अनुकंपा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं त्याग ये उसकी शाखाएं हैं, उत्तम भावना उसकी प्रतिशाखाएं हैं; धर्मध्यान तथा शुक्र ध्यान उसके पल्लव हैं; निर्विषयिता, निलोंभिता तथा क्षमादि गुण उसके पत्ते हैं; वासनादि पापोंके क्षय तथा देहाध्यासके. त्यागको उसका पुष्प, मोक्ष फल और मुक्त दशामें प्राप्त निराबाध सुखको उसका मधुर रस समझना चाहिये । १४८ [३] जो धात्मा क्रोधी, अज्ञानी (मूर्ख), अहंकारी, सदैव कटुभाषी, मायावी, धूर्त होता है उसे श्रविनीत समझना चाहिये और वह पानीके प्रबल प्रवाहमें काष्ठकी तरह सदैव इस संसार - प्रवाह में तैरता रहता है । ..
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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