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________________ - .विनयसमाधि १४५ [१०] श्राचार्यदेवों की अप्रसन्नताले अज्ञानकी प्राप्ति होती है और उसको मोक्षमार्गमें अन्तराय होता है इसलिये अबाधित सुखके इच्छुक साधकको गुरुकृपा संपादन करने में ही लीन रहना चाहिये। टिप्पणी-गद्वेषका संपूर्ण क्षय होने पर ही संपूर्ण शान (केवल शान) पैदा होता है। ऐसी उन्य स्थिति पाने पर मी गुरुकी विनय करनेका विधान करे शासकारोने विनयका अपार माहात्म्यको बताया है और विनय हो को आत्मविकार की रीढीका पहिला डंडा बताया है। [9] जिस प्रकार अग्निहोनी ब्राह्मणं भिन्न २ प्रकार के घी, मधु, इत्यादि पर यों की आहुतियों तथा चेदमंत्रों द्वारा अभिषिक्त होमाग्निको नमस्कार करता है उसी तरह अनंत ज्ञानी और धर्मीष्ठ शिष्य भी अपने गुरुकी विनयपूर्वक भक्ति करे। . [१२] शिप्यका कर्तव्य है कि जिस गुरुसे वह धर्मशास्त्र के गूढ . रहस्य सीखा हो उस गुरुकी विनय सदैव करता रहे । उसको दोनों हाथ जोडकर प्रणाम करे। वधनसे उनका सत्कार करे और कार्यसे उनकी सेवा करे। इसी प्रकार मन, वचन और कायसे गुरुकी विनय करता रहे। [१३] अधर्म के प्रति लज्जा (अंरुचिभाव), दया, संयम और ब्रह्मचर्य ये ४ गुणं श्रात्महितैषी के लिये आत्मविशुद्धिके ही स्थान हैं (क्योंकि इससे कर्म रूपी मेंल दूर होता है) इसलिये "मेरे उपकारी गुरु सतत जो शिक्षा देते हैं. वह मेरो हितं करनेवाली है इसलिये ऐसे गुस्की हमेशां सेवा करते रहना मेरा कर्तव्य हे" ऐसी भावना उत्तम प्रकारके साधकको हमेशा रहनी चाहीये।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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