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________________ श्राचारप्रणिधि सुसजित स्त्री को उसके हावभावपूर्ण विलासमें देखने या मनसे सोचने की कोशिश न करे। यदि कदाचित् अकस्मात दृष्टि उघर पड जाय तो सूर्यकी तरफ पडी हुई निगाह की तरह उसको तत्क्षण ही उधर से हटाले। टिप्पणी-सूर्यकी तरफ एक क्षणके लिये भी दृष्टि नहीं जमती । हम उधर देखना भी चाहे तो भी नहीं देख सकते। इसी तरह ब्रह्मचारी की दृष्टिका यह स्वभाव हो जाना चाहिये कि वह इरादापूर्वक कामिनियों के लावण्य, रूप, हावभावपूर्ण चेष्टानोंको देखनेका प्रयत्न न करे । यदि कदाचित अनिच्छापूर्वक वे दिखाई दे जाय तो उनके द्वारा विकारी भावना तो जागृत नहीं होनी चाहिये। साध्वी स्त्री को भी पुरुषों के प्रति यही भाव रखना चाहिये। [२६] ब्रह्मचारी साधकको, जिसके हाथ या पैर कट गये हों, नाक या कान कट गये हों अथवा विकृत हो गये हों अथवा जो सौ वर्षकी जर्जरित बेडोल बुढिया हो गई हो श्रादि किसी भी प्रकारकी स्त्री क्यों न हो उसको सर्वथा त्याग देना ही उचित है। टिप्पणी-ब्रह्मचर्य पालनेवाले पुरुषको स्त्री के साथ अथवा स्त्रीको पुरुष के साथ २ रहनेका तो सर्वथा त्याग कर ही देना चाहिये। एकांतनिवास भी वासना का एक बड़ा भारी उत्तेजक निमित्त है। विकार रूपी राक्षस वय,. वर्ण, या सौन्दर्य का विचार करनेके लिये रुक नहीं सकता क्योंकि वह अविवेकी, कुटिल एवं सर्वभक्षी होता है। [१७] श्रात्मस्वरूप के शोधकके लिये शोभा (शरीर सौंदर्य), स्त्रियोंका संसर्ग तथा रसपूर्ण स्वादिष्ट भोजन ये सभी वस्तुएं तालपुट विपके समान परम अहितकारी हैं। टिप्पणी-रसनेन्द्रियका अननेन्द्रियके साथ अति गाढ संबंध होनेसे अत्यधिक चरचरे, तीखे, अथवा अति रसपूर्ण मिष्टान्न भोजन विकार-भाव पैदा करते.
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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