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________________ 'श्राचारप्रणिधि किसीकी निंदा न करे तथा बोलनेमें मायाचार एवं असत्यको विलकुल न आने दे। FE और जिस भापाके बोलने से दूसरे को अविश्वास पैदा हो अथवा दूसरे जन क्रुद्ध हो जाय, जिससे किसीका अहित होता हो ऐसी भाषा साधु न बोले । [६] किन्तु श्रात्मार्थी साधक, जिस वस्तुको जैसी देखी हो वैसी ही परिमित, संदेह रहित, पूर्ण, स्पष्ट, एवं अनुभवयुक्त वाणीमें वोले । यह वाणी भी वाचालता एवं परदुःखकारी भावसे रहित होनी चाहिये। [१०] साधुत्व के प्राचार एवं ज्ञानका धारक तथा दृष्टिवादका पाठी ज्ञानी भी वाणीके यथार्थ उच्चारण करनेमें भूल कर सकता है। ऐसी परिस्थितिमें साधक मुनि उच्चारण संबंधी भूल करते देखकर किसीकी हंसी मश्करी न करे। टिप्पणी-आचारांग सूत्रम अंमणके आचारों का वर्णन है तथा भगवती सत्रमें श्रामण्य भन्यशनका वर्णन है। ये दोनों ग्रंथराज तथा दृष्टिवाद नामक सूत्र (यह ग्रंथ आजकल उपलब्ध नहीं है) जैन सूत्रोंमें अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है। इन तीनों ग्रंथराजों के पाठी भी शद्रों के ठीक २ उच्चारण करने में भूल कर बैठते हैं तो उस समय “आप सरीखे विद्वान इतना भी नहीं जानते, आप भी भूलकर वैठे" इस प्रकारकी उनकी अपमानजनक हंसी'मश्करी मुनि न करे। क्योंकि मनुष्य मात्र से भूल हो जाना संभव है। यदि अनिवार्य आवश्यकता ही आ जाय तो नम्रता के साथ उस भूलको सुधारने के 'लिये प्रयत्न करे किन्तु ऐसा कोई शद्वं न कहे या ऐसी चेष्टा न करे जिससे उस शानीको दुःख या अपमान होनेका बोध हो। [१०] मुनि यदि नक्षत्र-विचार, ज्योतिप, स्वमविद्या, वशीकरण विद्या, शुकन शास्त्र, 'मंत्रविद्या अथवा वैद्यचिकित्सा श्रादि संबंधी जा
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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