SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ १२६ - दशवैकालिक सूत्र सूक्ष्म-हटे अंकुर श्रादि, (6) अंड सूक्ष्म-चींटी, मक्खी आदि के सूक्ष्म अंडे। [१६] समस्त इंद्रियों को वशीभूत रखनेवाला संयमी मितु उपर्युक आठ प्रकार के सूक्ष्म प्राणियों के स्वरूप को भलीभांति जानकर अपना व्यवहार ऐसा उपयोगपूर्ण रक्खे जिससे उन जीवोंको कुछ भी पीडा न हो। [१७] संयमी मिनु नित्य उपयोगपूर्वक (स्वस्थ चित्त रखकर एकाग्रता पूर्वक) पात्र, कंवल, शय्यास्थान, उच्चार भूमि, विछौना अथवा आसनका प्रतिलेखन करे। टिप्पणी-आंखसे जीव जन्तुओंको बरावर उपयोगपूर्वक देखे और यदि जीव हो तो उनको क्षति पहुंचाये विना एक तरफ हटादे। इस क्रियाको प्रतिलेखन क्रिया कहते हैं । इसका सविस्तर वर्णन उत्तराध्ययन के २६ में अध्ययनमें किया गया है। [१८] संयमी भिक्षु मल, मूत्र, वल्गम, छिनक (नाकका मल), अथवा शरीर का मैल यदि कहीं फेंकना या डालना हो तो उन्हें जीवरहित स्थानमें खूब देखभालकर डाले। टिप्पणी-जिस स्थान पर मल आदि डाला जाता है उसे उच्चार भूमि कहते हैं। वह स्थान भी विशुद्ध तथा जीवरहित है या नहीं यह भलीभांति देख संभाल कर ही वहां मलशुद्धि करनी उचित है । गृहस्थश्रम में भी इस प्रकार की शुद्धि की वडी आवश्यकता है। [१] भोजन अथवा पानी के लिये गृहस्थ के घर गया हुआ साधु यना (सावधानी) पूर्वक खडा रहे और मयादापूर्वक ही वोले। वहां पर पड़े हुए भिन्न २ पदार्थों की तरफ (किंवा रूपवती स्त्रियोंकी तरफ अपना मन) न दौडाचे ।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy