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________________ धर्मार्थकामाध्ययन १०३ है तब वह साधक के लिये उल्टी बाधक हो जाती है और इसीलिये वह त्याज्य है। [६७] क्योंकि ज्ञानीजन विभूपासंबंधी संकल्प विकल्प करनेवाले मनको बहुत ही गाड कर्मबंध का कारण मानते हैं और इसीलिये सूक्ष्म जीवों की रक्षा करने वाले साधु पुरुषोंने उसका मन से भी कमी सेवन (चिन्तवन) नहीं किया। टिप्पणी-शरीर की टापटीप में जिस का चित्त संलग्न रहता है ऐसा पुरुष तत्संबंधी अनेक प्रकार के दोप कर डालता है और उसका चित्त सदा भ्रांत रहता है। [१८] मोह रहित, वस्तु के स्वरूप को यथार्थ रूपमें, देखनेवाला तथा संयम, ऋजुता तथा तपमें रक्त साधुपुरुप अपनी आत्माकी दुष्ट प्रकृति को खपा देते (क्षय कर देते ) हैं। वे निग्रंथ मुनि पूर्व संचित पापों के बंधों को भी क्षय कर देते हैं और नये पापबंध नहीं करते हैं। -[६६] सर्वदा उपशांत, ममत्वरहित, अपरिग्रही, आध्यात्मिक विद्या का अनुसरण करने वाले, यशस्वी, तथा प्रत्येक छोटे वडे जीवों का अात्मवत् रक्षण करने वाले साधक शरदऋतु के निर्मल चंद्रमा के समान कर्ममल से सर्वथा रहित होकर सिद्धगति को प्राप्त होते हैं अथवा स्वल्पकर्म अवशिष्ट रहने पर उच्च प्रकार के देवलोक में उत्तम जाति के देव होते हैं।। टिप्पणी-आचार धर्म के व्रत त्यागी जीवन के अनिवार्य नियम हैं इन नियमों में अपवादों को लेशमात्र भी जगह नहीं है क्योंकि उसपर ही तो त्यागी जीवन की रक्षा का आधार है। आचार के इन १८ स्थानों में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, 'अपरिग्रह ये ५ महाव्रत है और ये मूलगुण हैं। मूलगुण ये इसलिये हैं
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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