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________________ धर्मार्थकामाध्ययन की ग्रंथि से रहित) साधु पुरुष रात्रि में किसी भी प्रकार का श्राहार एवं पेय (प्रवाही पीने योग्य पदार्थ) का सेवन न करे। [२७] (सातवां स्थान ) सुलमाधिवंत संयमी पुरुप मन, वचन और काय से पृथ्वीकाय के जीवों को नहीं मारता, दूसरों द्वारा नहीं मरवाता और न किसी मारनेवाले की प्रशंसा ही करता है। टिप्पणी-साधु पुरुष जव संयम अंगीकार करते हैं उस समय तीन करण (कृत, कारित एवं अनुमोदना ) और तीन योगों (मन, वचन और काय) से हिंसा के प्रत्याख्यान लेते हैं। पहिले नत के ३४३=EXE=८१ मेद; दूसरे व्रत के ३४३=x=३६ मेद; तीसरे व्रत के ३४३%६x६=५४ मेद: चौथे व्रत के ३४३%D8x३=२७ मेद; पांचवें व्रत के ३४३-६x६:५४ मेद; और छठे व्रत के ३६ भेद होते हैं । इसका सविस्तर वर्णन इसी ग्रंथके चौधे अध्ययन में किया गया है। [२८] क्योंकि पृथ्वीकाय की हिंसा करनेवाला पृथ्वी के श्राश्रय में रहने वाले दृष्टिसे दीखने और न दीखनेवाले भिन्न २ प्रकार के अनेक त्रस एवं स्थावर जीवों की भी हिंसा कर डालता है। [२६] यह दोप दुर्गति का कारण है ऐसा जानकर पृथ्वीकाय के समारंभ (सचित्त पृथ्वी की हिंसा करनेवाले कार्य) को साधु पुरुप जीवनपर्यन्त के लिये त्याग दे। . टिप्पणी-केवल साधु पुरुषों के लिये ही ऐसे कठिन मत के पालने की आशा दी है क्योंकि गृहस्थजीवन तो एक ऐसा जीवन है. जहां इन सामान्य पापों को किये बिना कोई काम ही नहीं हो सकता। फिर भी गृहस्थ को भी सब जगह सावधानी एवं विवेक रखना चाहिये । [३०] (आठवां स्थान ) सुसमाधिवंत संयमी पुरुष मन, वचन और कायसे जलकायके जीवों की हिंसा नहीं करता, दूसरों से हिंसा
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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