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________________ धर्मार्थकामाध्ययन ८६ [१६] (चौथा स्थान) संयम के भंग करनेवाले स्थानों से दूर रहनेवाले (अर्थात् चारित्रधर्म में सावधान) मुनिजन साधारण जनसमूहों के लिये अत्यन्त दुःसाध्य, प्रमाद का कारणभूत एवं महा भयंकर अब्रह्मचर्य का कभी भी सेवन । नहीं करते हैं। [१७] क्योंकि यह अब्राह्मचर्य ही अधर्नका मूल है । मैथुन ही महा दोपों का भाजन है इसलिये मैथुन संसर्ग को निग्रंथ पुरुष त्याग देते हैं। टिप्पणी-महापुरुप नामचर्यव्रत को सर्व व्रतों में समुद्र के समान प्रधान' मानते हैं क्योंकि अन्य व्रतोंका पालन अपेक्षाकृत सरल है । ब्रह्मचर्यका पालन हो अत्यन्त कठिन एवं दुःसाध्य है । सारांश यह है कि ब्रह्मचर्य के भंग से अन्यव्रतों का भंग और उसके पालन से अन्य व्रतों का पालन सुगमता से हो सकता है। [१८] (पांचवां स्थान) जो साधुपुरुष ज्ञातपुत्र (भगवान महावीर.) के वचनों में अनुरक्त रहते हैं वे वलवण (सिका हुआ नमक), श्राचार श्रादिका सामान्य नमक, तेल, घी, गुड आदि अथवा इसी प्रकार की अन्य कोई भी खाद्य सामग्री का रात तक संग्रह (संचय) नहीं कर रखते हैं, इतना ही नहीं संचय कर रखने की इच्छा तक भी नहीं करते हैं । [१६] क्योंकि इस प्रकारका संचय करना भी एक या दूसरे प्रकार का लोभ ही तो है अर्थात् इस प्रकार की संचय भावनासे लोभकी वृद्धि होती है इसलिये मैं संग्रह की इच्छा रखनेवाले साधु को साधु नहीं मानता हूं किन्तु वह एक अवती सामान्य गृहस्थ ही है । टिप्पणी-सच पूछिये तो ऐसा परिग्रही साधु गृहस्थ को भी उपमा के योग्य नहीं है क्योंकि गृहस्थ तो त्याग न कर सफने के कारण अपने आपको.
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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