SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - दशकालिक सूत्र प्राप्त होता है और साधुत्व से वंचित होकर हमेशा.असाधुता को प्राप्त करता रहता है ।। ३] जिसप्रकार चोर अपने ही दुष्कर्मों के डर से हमेशा प्रांतचित्त रहता है उसी तरह ऐला दुर्बुद्धि भिक्षुक भी अपने ही दुष्कर्मों से अस्थिर चित्त हो जाता है। ऐसा अस्थिर चित्त मुनि अपनी मृत्यु तक भी संवर धर्म की आराधना नहीं कर सकता। टिप्पणी-जितका चित्त भोगों में आसक्त रहता है वह कभी भी संयम में दत्तचित्त हो ही नहीं सकता। [४०] और मात्र वेशधारी ऐसा साधु अपने प्राचार्यों की अथवा दूसरे श्रमणों की भी शाराधना नहीं कर सकता । महापुरुपों के उपदेशों का उसपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता । इस कारण गृहस्थ भी उस की निंदा करते हैं क्यों कि वे सब उस की ऐसी अलाधुता को स्पष्ट रूप से जान जाते हैं। [४] इस प्रकार दुर्गुणों का सेवन करनेवाला एवं गुणों को त्याग देनेवाला वह साधु मरणपर्यंत संवर धर्म की आराधना नहीं करने पाता। टिप्पणी-सद्गुणों की आराधना से ही धर्म की आराधना होती है। जिस निया से सद्गुणे की प्राप्ति अथवा वृद्धि न होती हो वह धर्न क्रिया कहे जाने के योग्य नहीं है। [४२] जो कोई बुद्धिमान सांधक स्निग्ध तथा स्वादिष्ट एवं अति रसों से युक्त भोजनों को छोड़ कर तपश्चर्या करता है, जो मंद (अभिमान) तथा प्रमाद से निवृत्त हो, तपस्वी बन कर विकास मार्ग में आगे बढता जाता है।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy