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________________ श्रीभगवती सूत्र . [५२५] तात्पर्य यह है कि शुद्ध लेश्याओं मसाधुता नहींरहती। वल्कि गोम्मटसार अन्य में तथा अन्य ग्रंथातो अशुद्धलेश्याम श्रावकपन भी नहीं माना । इस पर यह प्रश्न किया जासकता है कि श्रावक संसार संबंधी कार्य करता है, फिर उसमें शुद्ध लेश्या कैले रह सकती है ? इसका उत्तर यह है कि साधु लन्धि फोड़कर दूसरे को सज़ा देने पर भी जैसे विराधक नहीं है, उसी प्रकार श्रावक संसार संबंधी कार्य करता हुआ भी, भावना की अशुद्धता न होने के कारण अप्रशस्त लेश्या वाला नहीं है । व्रत का पालन, शुद्ध लेश्या के अन्तर्गत है। यह कहा जा सकता है कि श्रावक श्रारंभ करता है, मगर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जहां वह हल्का प्रारंभ करता है वहां व्रतों का पालन भी करता है। श्रावक के परिणाम सदा अच्छे रहते हैं, इसलिए उसकी लेश्या भी शुद्ध ही है। . तात्पर्य यह है कि कृष्ण, नील और कापोत लेश्या का एक दंडक कर लीजिए । यह तीन प्रोधिक हैं। इनमें प्रमादी, अप्रमादी का भेद नहीं है, क्योंकि कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में साधुता नहीं है जहां साधु में छह लेश्याएँ कही गई हो वहां तीन द्रव्य लेश्याएँ समझनी चाहिए, भाव लेश्याएँ नहीं। यह बात टीकात्रों और टब्बों में स्पष्ट करदी गई है। श्रतएव अशुद्ध लेश्याओं में प्रमादी और अप्रमादी का भेद नहीं रहता। - प्रश्न-सूत्र का उच्चारण किस प्रकार करना चाहिए? यह विधि बतलाते हैं। वह इस प्रकार है-भगवन् कृष्णलेश्या -वाले-जीव आत्मरंभी हैं, परारंमी हैं, उभयारंभी हैं, या अनारंभी हैं ? इसका उत्तर है-गौतम ! श्रात्मारंभी हैं, परारंभी है, उभयारंभी है, अनारंभी नहीं हैं। .
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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