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________________ [४६६] मात्म-परारम्भादि वर्णन धन कभी, किसी के यहां स्थायी नहीं रहा। आज है, कलं चला जायगा। इस लिये उसले सुस्त कर लो। आप जैन है, जैनधर्म का प्रभाव अपने उच्च चरित्रंद्वारा बढ़ाइये।जैनधर्म को कलंकित करने वाला कोई काम न कीजिये । भव.मूल विषय पर श्राइए । यह कहा जा चुका है कि प्रारम्भ का सरल अर्थ है जीव को कष्ट पहुँचाना । लेकिन इस अर्थ में यह शंका हो सकती है कि जीव सदा सर्वदा तो दूसरे को कप्ट पहुँचाता नहीं है। सब समय प्रारम्भ नहीं करता है। अतएव जीवों को कभी प्रारम्भ करने वाले और कभी प्रारम्भ न करने वाले कहना चाहिए। यह शंका उत्पन्न न हो, इस लिए प्रारम्भ का समुच्चय में अर्थ किया गया है-आस्रवद्वार में प्रवृत्ति करना। . अव प्रश्न यह है कि छठे गुणस्थान वाले प्रमत्तसंयत प्रारम्भी हैं, और सातवें गुणस्थान वाले प्रारम्भी नहीं है, तथा पासव की प्रवृत्ति तेरहवें गुणस्थान तक है। फिर यह अर्थ कैसे संगत होगा कि आस्रव-द्वार में प्रवृत्ति करना प्रारम्भ है, क्योंकि सातवें गुणस्थान से आगे श्रारम्भिया ‘क्रिया नहीं है। . . । इसी सूत्र में आगे गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है किभगवान् ! जीव जव तक चलता-फिरता है, तब तक उसे मोक्ष प्राप्त होता है ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् ने निषेध में दिया है। क्योंकि जब तकजीव चलता-फिरता है, तब तक उस के शरीर से प्राणियों को दुःख पहुँचता ही है । तात्पर्य यह है कि चौदहवें गुणस्थान से पूर्व जीव के शरीर से दूसरे प्राणियों को कष्ट पहुँचता ही है।
SR No.010494
Book TitleBhagavati Sutra par Vyakhyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1947
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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