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________________ प्रथम मरिमोद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व, अपनी सखियों से बताती है। वह प्रभु का यशोगान करती है तथा अपनी सखियों से हास-परिहास अथवा आलाप-प्रत्यालाप भी करती है। इन्द्र सुमंगला के भाग्य की सराहना करते है और कहते है कि अवधि के पूर्व होने पर संमुगला को पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी, इसके पति का वचन मिथ्या नहीं हो सकता, इसके पुत्र के नाम से यह भूमि 'भारत' तथा वाणी 'भारतीय' कहलायेगी। इस प्रकार मध्यान्ह वर्णन के साथ यह महाकाव्य समाप्त हो जाता है।१२७ काव्य सौन्दर्य काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से जैनकुमारसम्भव महाकवि जयशेखरसूरि की अन्यान्य रचनाओं में सर्वोत्कृष्ट है और कवि को महाकवि की प्रतिष्ठापरक पदवी से अलंकृत करने का एक मात्र आश्रय। इस काव्य की भाषा प्रौढ़ है और शैली परिमार्जित। कवि ने इस काव्य में देश, नगर वन, पर्वत, ऋतु, सन्ध्या, सूर्योदय, चन्द्रोदय आदि का अत्यन्त स्वाभाविक वर्णन उत्प्रेक्षा, उपमा और रुपक की भूमिका में सम्पन्न किया है। अयोध्या नगरी का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि तमिस्रपक्षेऽपि तमिस्रराशे रूध्येऽवकाशे किरणैर्मणीनाम्। यस्यामभूवन्निशि लक्ष्मणानां श्रेयोऽर्थमेवावसथेषु दीपाः।। अयोध्या नगरी में धनिकों के घर में रात्रि में दीपक केवल मंगल के लिए ही प्रज्ज्वलित किये जाते है। अतः भवनों में जड़ित मणियों का प्रकाश इतना अधिक होता था कि दीपक प्रज्ज्वलित करने की आवश्यकता ही नही
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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