SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम मदिरद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व चमत्कारी होता है, उसे ध्वनि (उत्तम) काव्य कहते है। जिस काव्य में व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ की अपेक्षा अधिक चमत्कारी नहीं होता, उसे मध्यम (गुणीभूत) काव्य कहते है, और जिसमें व्यंग्यार्थ की स्फुटता नहीं रहती, उसे चित्र काव्य (अवर काव्य) कहते है। ५. इन्द्रिय ग्राह्यता की दृष्टि से इस दृष्टि से काव्य का विभाजन सम्भव है। कवि की सरस कृति कोस हृदय जिन विशिष्टय ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण करता है, वे है(१) श्रवणेन्द्रिय (२) चक्षुरेन्द्रिय। आचार्यों ने इसे दो प्रकार से विभक्त किया है(१) दृश्य या प्रेक्ष्य या अभिनेय। (२) श्रव्य अथवा अनभिनेय जिस काव्य का आस्वाद पढ़कर या सुनकर किया जाय वह श्रव्य काव्य कहलाता है। रस भेद के अन्तर्गत महाकाव्य, खण्डकाव्य, चम्पू, कथा और आख्यायिका आदि आते हैं इसके विपरीत जिसका आनन्द हम अपने नेत्रों से देख (एवं कानों से सुनकर) कर उठा सकते है, उसे दृश्य काव्य कहते है अर्थात् दृश्यकाव्य भी पढ़ा और सुना जा सकता है। आचार्य भरत ने इसी अभिप्राय से नाट्य को दृश्य और श्रव्य दोनों कहा है।" ६. प्रतिपाद्य विषय के आधार पर आचार्य भामह ने इस आधार पर काव्य के चार भेद किये हैं २७
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy