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________________ प्रथम : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व, दाक्षी पुत्र कोई और नहीं व्याकरणाचार्य पाणिनि ही है, जैसा कि भाष्यकार पतंजलि ने कहा है- 'सर्वे सर्व पदादेशः दाक्षीपुत्रस्य पाणिने । ३०१ इस प्रकार हम देखते है कि उपर्युक्त प्राचीन ग्रन्थों में यद्यपि सुव्यवस्थित काव्य लक्षणों का अभाव है तथापि काव्य निर्माण सम्बन्धी प्रमुख तत्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं, जो किसी भी सामान्य जन को काव्य निर्माण के प्रति प्रेरित करने में समर्थ हैं और इनके अध्ययन के अभाव में काव्य न केवल अधूरा रहेगा बल्कि उपहास का पात्र बन कर काल कवलित भी हो जायेगा। वेद पुराणों के बाद काव्य का सर्वाधिक प्राचीन लक्षण हमें आचार्य भरत के 'नाट्यशास्त्र' में प्राप्त होता है। यद्यपि उनका यह काव्य- लक्षण, काव्य के भेद 'दृष्यकाव्य' के सन्दर्भ में निर्दिष्ट है तथापि यह काव्य-स्वरूप को प्रकाशित करने में पूर्ण समर्थ है। आचार्य भरत का काव्य - लक्षण इस प्रकार है मृदुललित पदाद्यं गुढशब्दार्थहीनं । जनपदसुखवोध्यं युक्तिमन्नृत्तयोग्यम् ।। बहुकृत रसमार्गं सन्धि-संधान युक्तं । भवति जगति योग्यं नाटकं प्रेक्षकाणाम् ।।३१ तदुपरान्त अग्निपुराण में काव्य का सर्वप्रथम लक्षण इस प्रकार दिया गया है १२
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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