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________________ षष्ठ सकिद: जैनकुमारसम्भव की कलापक्षीय समीक्षा पुत्र को देखकर माता मरुदेवी की दशा के चित्रण में कवि की कल्पना दर्शनीय हैं अश्रौघंदभावहिरुद्गतेन, माता नमाता हृदि संमदेन। परिप्लुताक्षी तनुजं स्वजन्ती, यं तोषदृष्टेरपि नो विभाय।। ऋषभदेव के नेत्र कमलवत् है। वे इतने सुन्दर है कि लक्ष्मी उनकी दासी बन गयी हैं। प्रभु ऋषभदेव के नेत्रों में ही लक्ष्मी निवास करती है। प्रभु को देखकर लोगों के दुःख-दारिद्रय दूर हो जाते है। कवि ने अपनी इस उदात्त कल्पना को इस प्रकार वर्णित किया है 'पद्मानि जित्वा बिहितास्य दृग्भ्यां, सदा स्वदासी ननु पद्मवासा। किमन्यथा सावसथानि याति तत्प्रेरिता प्रेमजुषामखेदम्।।३१ इस प्रकार स्पष्ट है कि कवि जयशेखर सूरि कल्पना के लिए कालिदास पर निर्भर हैं किन्तु जैनकुमारसम्भव का चौदह स्वप्नवर्णन उनकी अति विशिष्टता है और कवि जयशेखर सूरि की यह अपनी निजी कल्पना है, जिसे कवि ने इस प्रकार वर्णन किया हैं "प्रथमं सा लसद्दन्त- दंडमच्छुडमुन्नतम,
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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