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________________ षष्ठ पहिलोद : जैनकुमारसम्भव की कलापक्षीय समीक्षा कष्टसाध्य एवं दुरुह नही हैं। जयशेखर सूरि ने भाषा के सम्बन्ध में हेमचन्द्र, वाग्भट्ट आदि जैनाचार्यो के भाषा विधानों का उल्लंघन करके, जैनकुमारसम्भव में चित्रबन्ध की योजना न कर सुरुचिपूर्ण ललित भाषा का प्रयोग किया इस महाकाव्य की भाषा उदात्त एवं प्रौढ़ है और भाषा की यह उदात्तता और उसकी प्रौढ़ता ही जैनकुमारसम्भव की प्रमुख विशेषता है। काव्य में बहुधा प्रसादगुण और भावानुकूल पदावली प्रयुक्त हुई है। प्रसंगानुसार भाषा का व्यवहार जयशेखर सूरि के भाषाधिकार का द्योतक है। जैनकुमारसम्भव की भाषा के परिष्कार तथा सौन्दर्य का श्रेय मुख्यतः अनुप्रास और गौणतः यमक अलंकार की विवेकपूर्ण संयत-योजना को है। काव्य में जिस कोटि के अनुप्रास तथा यमक अलंकार प्रयुक्त हुए है उससे भाषा में माधुर्य तथा मनोरम झंकृति उत्पन्न हुई है। __ इन्द्र द्वारा विवाह की स्वीकृति के लिए विनय प्रसंग में अनुप्रास एवं यमक की छटा द्रष्टव्य है शठौ समेतौ दृढसरव्यमेतौ, तारुण्यमारौ कृतलोकमारौ। भेत्तुं यत्तेनां मम जातु चित्त-दुर्गं महात्मन्निति मास्ममंस्याः।। मया दृशा पश्यसि देव रामा, इमामनोभूतरवारिधाराः। तां पृच्छ पृथ्वीधरवंशवृद्धौ, नैताः किमंभोधरवारिधारा। जो स्त्री समर्थ होते हुए भी अपने पति के प्रति दासी का भाव १८६
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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