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________________ पञ्चम, अतिलोद : जैनकुमारसम्भव में रस, छन्द, अलवार, गुण एवं दोष चित्त के विस्तार रूप दीप्ति विद्यमान है, जो ओजोगुण का स्वरूप है अतः उनका अन्तर्भाव ओजोगुण में हो जायेगा। ओजोगुण मिश्रित रचना की शिथिलता प्रसाद नामक शब्दगुण, अर्थ स्पष्टता रूप प्रसाद नामक अर्थगुण, शीघ्र ही अर्थ का बोध कराने वाली रचना अर्थ व्यक्ति नामक शब्दगुण और जो रचना वस्तु के स्वभाव का स्पष्ट रूप से विवेचन कराये वह अर्थव्यक्ति नामक अर्थ गुण कहलाता है। इनका अन्तर्भाव हमें अभीष्ट लक्षण वाले प्रसादगुण में हो जाता है।१२३ काव्य में निबद्ध रचना शैली का अन्त तक परित्याग न करना समता नामक शब्दगुण प्रक्रम का अभेद रूप अविषमता नामक अर्थगुण और रचना में ग्राम्यता का अभाव उदारता नामक अर्थगुण कहलाता है। समता तथा उदारता में दोनों क्रमशः भ्रग्नप्रक्रम व ग्राम्यदोष का अभावमात्र इस प्रकार वामन ने जो दस शब्दगुण व दस अर्थगुण माने है वे ठीक नहीं है, क्योंकि उनका माधुर्य, ओज और प्रसाद नामक तीनों गुणों में अन्तर्भाव हो जाता है। पुनः आचार्य नरेन्द्रप्रभसूरि ने अपने द्वारा स्वीकृत इन माधुर्यादि तीन गुणों का लक्षण सहित उदाहरण पूर्वक विवेचन किया है तथा आचार्य हेमचन्द्र के समान प्रत्येक गुण के उदाहरण के साथ उसका प्रत्युदाहरण भी प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही रसों में गुणों की तारतम्यता व गुणों के व्यञ्जक वर्ण-विशेषों का भी निर्देश किया है।१२५ आचार्य वाग्भट- द्वितीय ने सर्वप्रथम भरतमुनि सम्मत दस काव्य गुणों के
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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