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________________ तान्येवाहितशस्त्रधस्मर गुरुण्यस्त्राणि भास्वस्ति नो। भद्रामेण कृतं तदेव कुरुते द्रोणात्मजः क्रोधनः।।१० इसमें उक्त प्रकार के वर्णों का अभाव है तथा समास-रहित अनुद्धत रचना होने से ओजोगुण विरुद्ध है। (३) प्रसाद विकास का हेतु प्रसाद गुण सभी रसों में होता है। शुष्क ईंधन में अग्नि की भांति तथा स्वच्छ जल की तरह चित्त में सहसा व्याप्त होने वाला तथा समस्त रसों में पाया जाने वाला प्रसाद गुण है।४१ प्रायः यही मत आचार्य मम्मट का भी है।११२ श्रवणमात्र से अर्थवोध कराने वाले वर्ण समास और रचनाएं प्रसादगुण की व्यञ्जक हैं।११३ यथा दातारो यदि कल्पशारिवभिरलं यद्यर्थिनः किंतृणैः। सन्तश्चेदमृतेन किं यदि खलास्तत्कालकूटेन किम्; संसारेऽपि सतीन्द्रजालमपरं यद्यस्ति तेनापि किम्।।१४ माधुर्य, ओज व प्रसाद के व्यञ्जक वर्गों को क्रमशः उपनाशरिका परुषा व कोमला नामक वृत्ति कहा गया है और अन्य आचार्य इन्हें ही वैदर्भी, गौडी और पाञ्चाली रीति कहते हैं जैसा कि कहा गया है माधुर्यव्यञ्जकैवर्णैरुपनागरिकेष्यते। ओजः प्रकाशकैस्तेऽस्तु परुषा कोमला परैः।। १६४
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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