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________________ पञ्चम अडिसेद : जैनकुमारसम्भव मे रस, छन्द, अलङ्कार, गुण एवं दोष सयो भिन्नेभ कुंमोत्थ- व्यक्तमुक्तोपहारिणम् हरिणाक्षी हरिं स्वप्न- दृष्टं सावमन्यत।। इस महाकाव्य में शृङ्गार रस सर्वाधिक प्रसङ्गों में परिलक्षित होता है। यद्यपि जैन साहित्य का इतिहास भाग-६ में उल्लिखित विद्वानों द्वारा इस महाकाव्य में अङ्गी रस का अभाव बताया गया है किन्तु किसी महाकाव्य में एक अङ्गी रस का होना आवश्यक होता है तथ्य यह भी है कि यहाँ शृङ्गार रस जिसका लौकिक वासनात्मक स्वरूप न होकर धर्म प्रधान शृङ्गार के रूप में है और चूंकि ऋषभदेव सामान्य नायक नहीं अपितु जैनियों के आराध्य देव के रूप में हैं अतएव कवि अपने पूजनीय एवं आदरणीय नायक को लौकिक शृङ्गार के रूप में वर्णित न कर धर्म प्रधान नायक के रूप में चित्रित किया है इसलिए शृङ्गार मुखर रूप में न आकर अपरोक्ष रूप में आया है अतः यहाँ शृङ्गार अङ्गी रस के रूप में तथा शेष अन्य रस अङ्ग रस के रूप में माना जा सकता है। छन्द की दृष्टि से जैनकुमारसम्भव का विवेचन ___ 'छन्द' काव्य का वह प्रमुख तत्व है, जिसके द्वारा गद्य को पद्य के रूप में रूपान्तरित किया जाता है। अर्थात इसके विनियोजन से शब्द काव्योचित प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है। प्रायः प्रत्येक अलंकारिकों ने अपने महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षण में छन्द के विनियोजन का प्रमुखता पूर्वक उल्लेख किया है और काव्य में सभी छन्दों की योजना का आग्रह किया है।र सर्वप्रथम हम जैनकुमारसम्भव में प्रयुक्त छन्दों का संक्षेप में लक्षण वताते हैं जो अप्रासंगिक नही होगा। १३४
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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