SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ श्रवगवेगोल और दक्षिण के अन्य जैन-तीर्थ भद्रवाहु योगिराज ने अपने मन, वचन और काय के योगो की प्रवृत्ति को रोक कर सल्लेखना विधि स्वीकार की। चन्द्रगुप्त मुनि ने वहा श्रावको के न रहने से प्रोषधोपवास किया । भद्रवाहु ने उनको चर्या के लिए भेजा, किन्तु तीन दिन वरावर अन्तराय हुआ। चौथे दिन वन-देवता ने एक नगर वसाया जिसका नाम 'श्रवणबेलगोल' रखा गया। चन्द्रगुप्त मुनि यही आहार करने लगे। भद्रबाहु मुनिराज ने सप्तभय रहित होकर क्षुधादि उपद्रवो को जीता और ४ प्रकार की आराधना आराध कर शुद्धोपयोग स्वीकार कर निरभिलाषी हो समाधिपूर्वक शरीर का परित्याग किया। जिस कन्दरा मे भद्रबाहु ने शरीर छोडा चन्द्रगुप्त मुनिराज ने वही रहकर बारह वर्ष पर्यन्त गुरु मे चरणो की उपासना करते हुए तपश्चरण किया और अन्त मे समाधिमरणपूर्वक देह-तयग किया। मंत्री चामुण्डराय __ भारतवर्ष एक श्रीसम्पन्न देश है । उसकी यह श्री विशेषकर चार रूपो मे स्पष्ट व्यक्त है, अर्थात् धन-सम्पत्ति, वीरता तथा पराक्रम, सास्कृतिक समृद्धि और अध्यात्मवाद । भौतिक दृष्टि से अपनी महान धन-सम्पत्ति के कारण भारतवर्प विदेशियों के द्वारा सोने की चिडिया के नाम से पुकारा गया । अत्यंत प्राचीन काल से यहा एक से बढ़कर एक ऐसे वीर योद्धा ओर पराक्रमी महापुरुप जन्म लेते रहे है जिसके कारण यदि भारत को वीर-प्रसूता भूमि कहा जाय, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। यहा की सास्कृतिक
SR No.010490
Book TitleShravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkrishna Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy