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________________ १४ श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ असार समझते हुए अपने भाई भरत को निम्न वाक्य कहे --- "भरत। यह ठीक है, कि तूने छह खण्ड पृथ्वी को अपने वश मे कर लिया है। क्या तुझे लज्जा नही आई कि तूने भाइयो का सत्व छीनकर राज्य प्राप्त करने की कुचेष्टा की है ? क्या आदिब्रह्मा भगवान वृषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र का यही कार्य था कि वह इस प्रकार अपने कुल का उद्धार करे ? तूने मोहित होकर मुझ पर जो चक्र चलाया है क्या वह न्यायसगत था ? इत्यादि । अव तू ही इस राज्य लक्ष्मी का उपभोग अव तुझे ही यह राज्य प्रिय रहे, हम अब निष्कटक तपरूपी लक्ष्मी को अपने अधीन करेगे । में विनय से च्युत हो गया था अतएव इसको मेरी चचलता समझ कर क्षमा कीजिए ।” वाहुवली ने अपने पुत्र महावली को राज्य देकर गुरुदेव के चरणो की आराधना करते हुए जिन-दीक्षा धारण की । इधर भरत को भी अपने कृत्य पर पश्चात्ताप हुआ । कर, बाहुबली मुनि ने एक वर्षतक निराहार खड़े रहकर प्रतिमायोग धारण किया। दोनो पैरो ओर हाथो तक वन की लताओ ने शरीर को व्याप्त कर लिया। बावी बनाकर घुटनो से ऊचे तक सर्प फुकार रहे थे । केश कन्धो तक आगए थे; किन्तु धीर-वीर बाहुवली सव बाधाओ को सहते हुए अत्यन्त शान्त थे । उन्होने अपने गुणो द्वारा पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि को जीत लिया, २२ परीषहो को सहन किया, २८ मूलगुण और ८४ लाख उत्तरगुणो का पालन किया। एक वर्ष तक घोर तपश्चरण करने पर लेश्या की विशुद्धि को प्राप्त कर शुक्लध्यान के सन्मुख हुए ।
SR No.010490
Book TitleShravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkrishna Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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