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________________ १२ श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीयं भगवान ऋषभदेव ने 'राजा' यह शब्द मेरे तथा भरत दोनो के लिए दिया था । वह अवश्य ही हमारे पिता की दी हुई पृथ्वी हमसे छीनना चाहता है अत उसका प्रत्याख्यान ( तिरस्कार ) होना ही चाहिए। मुझे पराजित किये बिना भरत इस पृथ्वी का उपभोग नही कर सकता, अत. तू जाकर अपने स्वामी को युद्ध के लिए तैयार कर दे । दूत ने सव समाचार महाराज भरत को सुना दिए । दोनो ओर से भयंकर युद्ध की तैयारी हुई। दोनो ओर के मन्त्रियो ने सोचा कि दोनो भाई तद्भव मोक्षगामी है, इनकी कुछ भी क्षति नही होगी । इनका युद्ध क्रूर ग्रहो के समान शान्ति के लिए नही है । इनके युद्ध से दोनो पक्ष के योद्धाओ का व्यर्थ संहार होगा और इसमे धर्म तथा यश का विघात होगा । यह सोच कर और नर- सहार से डरकर दोनो ओर के मन्त्रियो ने दोनो की आज्ञा लेकर धर्म-युद्ध की घोषणा कर दी । इन दोनो के वीच दृष्टि-युद्ध, जल-युद्ध और मल्ल-युद्ध का निश्चय हुआ । युद्ध प्रारम्भ हुआ । अत्यन्त वीर और निर्निमेष दृष्टिवाले वाहुवली ने दृष्टियुद्ध मे भरत को पराजित किया । इसके पश्चात् मदोन्मत्त और अभिमानोद्धत दोनो भाई जलयुद्ध के लिए सरोवर मे प्रविष्ट हुए । इसमें भी बाहुबली की विजय हुई । इसके पश्चात् वे दोनो नर शार्दूल मल्लयुद्ध के लिए रंगभूमि में आ उतरे । उन दोनो भाइयो का अनेक प्रकार से हाथ हिलाने, ताल ठोकने, पैतरा वदलने और भुजाओ के व्यायाम से वडा भारी मल्लयुद्ध हुआ । इसमे बाहुवली ने भरत को दोनो हाथो से उठाकर क्षणमात्र में ऊपर घुमा दिया, परन्तु
SR No.010490
Book TitleShravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkrishna Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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