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________________ २२ राष्ट्रकूट की राजधानी में 'हरिवश पुराण' 'आदिपुराण' और उत्तर पुराण, अकलक चरित, जयधवला टीका आदि ग्रंथों की रचना हुई है । जयववलाटीका दिगम्बर जैन सिद्धात का एक महान् ग्रन्य है । यही पर वीराचार्य ने गणित - शास्त्र का 'सार-संग्रह' नाम का एक ग्रन्व रचा। अमोघवर्ष ने स्वय नीतिशास्त्र पर एक 'प्रश्नोत्तर रत्नमालिका बनाई । नक्षेप में जमोघवर्ष ( प्रथम ) के समय में यह कहा जाता है कि उसने दिगम्बर जैनधर्म स्वीकार किया था और वह अपने समय में दिगम्बर जैनधर्म का सर्वश्रेष्ठ संरक्षक था । कृष्ण (द्वितीय) के राज्यकाल मे उसकी प्रजा और मरदारों ने या तो स्वय मंदिर बनवाये, या बने हुए मदिरी को दान दिया। शक संवत् ८२० मे गुणभद्राचार्य के शिष्य लोकसेन ने महापुराण की पूजा की। यद्यपि कल्याणी के चालुक्य जैन नही थे, तथापि हमारे पास मोमेश्वर ( प्रथम ) १०४२ से १०६८ ई का उत्तम उदाहरण है, जिन्होंने श्रवणवेल्गोल के शिलालेखानुसार एक जैनाचार्य को 'शब्दचतुर्मुख' की उपाधि से विभूषित किया था । इस शिलालेख में सोमेश्वर को 'आहवमल्ल' कहा है। तामिल देश के चोल राजाओ के सम्वन्ध में यह धारणा निराधार है कि उन्होंने जैन धर्म का विरोध किया । जिनकाची के शिलालेखों से यह बात भली प्रकार विदित होती है कि उन्होने आचार्य चन्द्रकोति और अनवत्यवीर्यवर्मन की रचनाओ की प्रशसा की । चोल राजाओ द्वारा जिनकाची के मदिरो को पर्याप्त सहायता मिलती रही है । ★ कलचूरि वश के संस्थापक त्रिभुवनमल्ल विज्जल राज्यकाल ११५६ से ११६७ ई के तमाम दान-पत्रो में एक जैन तीर्थंकर का चित्र अकित था । वह स्वय जैन था । अनतर वह अपने मंत्री वासव के दुष्प्रयत्न से मारा गया, क्योकि उसने वासव के कहने से जैनियो को सन्ताप देने से इन्कार कर दिया था । वासव लिंगायत सम्प्रदाय का संस्थापक था | 1 मैसूर के होय्यल शासक जैन रहे है । विनयादित्य (द्वितीय) राज्यकाल १०४७ से ११०० ई तक इस वश का ऐतिहासिक व्यक्ति रहा है । जैनाचार्य शान्तिदेव ने उसकी बहुत सहायता की थी । विष्णुवर्द्धन की
SR No.010490
Book TitleShravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkrishna Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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